रविवार, 6 मई 2007

जब बाबा जी बजवा देते हिन्दी में घंटा !

तुम्हारी मौसी मुंबई में हैं।
तुम्हारे जन्म की तारीख फलां है।
तुम्हारे घर में ऐसा उपकरण आऩे वाला है,जो पूरे कस्बे में अभी नहीं है।
बेटी, तुम्हारे पति आज बैंक नहीं गए।

बाबा जी की हर बात सही निकली। चमत्कार को नमस्कार करना ही पड़ा।

ये बात सन् 1993 की है शायद। उन दिनों हमारी जान-पहचान एक बाबा जी से हुई। बाबा जी भले इंसान थे, कभी कुछ मांगा नहीं-लिया नहीं।

खास बात ये कि हमारे बारे में,हमारे पड़ोसियों के बारे में बतायी बातें सच निकलीं। हमने अपने रिश्तेदारों को भी दिल्ली-कानपुर-आगरा से आऩे का न्यौता दे डाला। भइए, बाबा जी चमत्कारी टाइप के हैं, पूछ सको तो पूछ।

वैसे, मैं ईमानदारी से कहता हूं कि उन्होंने कुछ बातें ऐसी बतायीं-जो शायद मेरे अलावा किसी और को नहीं मालूम होंगी।

ज़ाहिर है, बाबा जी ने अपने प्रभावित कर रखा था। औरेया के उन बाबा जी का नाम याद नहीं, क्योंकि हम उन्हें बाबा जी ही कहते थे, लेकिन लगातार उनसे संपर्क होने के कारण उनका हमारे मुहल्ले में आना-जाना सामान्य हो गया था। उनके मुरीदों की संख्या लगातार बढ़ रही थी-और कोई ऐसा शख्स नहीं मिला था-जो कहे कि बाबा फ्रॉड हैं।

इन्हीं दिनों, हमारे इंटर के पेपर नजदीक आ गए। पहला पेपर हिन्दी का था। लालच बुरी बला है-और हम लालची नहीं, ऐसा भी नहीं। मन मे खयाल आया कि अगर बाबा जी चमत्कार से सवाल बता दें तो मज़ा आ जाए। लफड़े खत्म।

हमनें ये दिली ख्वाहिश बाबा जी को बतायी तो उन्होंने भी कह डाला- पेपर से एक दिन पहले आना।

भइए, हम और हमारा दोस्त पेपर से ऐन पहले के दिन शाम को बाबा जी के पास पहुंच गए। बाबा जी ने किताब में 10-12 सवालों पर टिक मार्क लगा दिया। हमने सोचा कि वाह बेटा! हो गया खेल! अब तो झंडा गढ जाएगा। दरअसल, बाबा जी पर अविश्वास करने का कोई ठोस कारण नहीं था।

रात में इम्तिहान की आखिरी तैयारी में जुटे तो उन सवालों को ठोक-बजाकर समझ लिया-जिन्हें बाबा जी ने बताया था। लेकिन, पहला पेपर था और अपन अक्ल से बिलकुल चिरकुट नहीं थे ( थोड़े तो थे ही, तभी गए थे बाबा जी के पास)-लिहाजा बाकी तैयारी भी कर डाली।

इम्तिहान वाले दिन अपनी दोस्ती का हक अदा करने के लिए कुछ दोस्तों को बाबाजी मार्का सवाल आउट कर डाले। भाई, यारी का सवाल है।हम 100 नंबर लाएं, अपना दोस्त 60 भी नहीं- ये अच्छी बात नहीं है। सो, दोस्तों को कुछ सवाल ये कहकर बता डाले कि भइए,बहुत इंपोर्टेंट सवाल है-किसी हिन्दी के विद्वान अंकल ने बताए हैं।

लेकिन, पर्चा आया तो एक पल के लिए हवाइयां उड़ गईँ। बाबा जी पूरी तरह फेल। एक सवाल नहीं गिरा साला पर्चे में उऩका। वो तो अच्छा था कि तैयारी ठीक ठाक थी और हिन्दी में अपना हाथ तंग नहीं था-वरना बाबा जी ने तो बजवा ही दिया था हिन्दी में घंटा। पेपर अच्छा ही हुआ...।

इस वाक्ये के बाद बाबा जी के पास हमारा जाना धीरे धीरे छूट गया। कई वजहों से। लेकिन,यह मानने को अभी भी मन नहीं करता कि वो फ्रॉड थे।

हां, कुछ ज्ञानी टाइप के लोगों ने बाद में कहा-बाबा जी के पास एक जिन्न था, जो भूत की बातें तो खोज लाता था, पर कल क्या होगा-इसमें जिन्न की भी हवा निकल जाती।

अब कोई कुछ भी सोचे-लेकिन दो बातें साफ हैं। पहली बात ये कि बाबा जी ने कई बातें बिलकुल ठीक बताई थीं, इसलिए उऩ पर यकीं हो गया। दूसरी बात ये कि अगर धोखे में भी हम अगर बाबा जी पर ही पूरा यकीं कर लेते तो 12वीं में हमारा हिन्दी में ही घंटा बज जाता। जी हां-हिन्दी। जिसमें किसी का घंटा नहीं बजता। साइंस,मैथ्स में तो दुनिया का घंटा बजता है,हमारा पहली बार हिन्दी में बज गया होता।
-पीयूष

मंगलवार, 1 मई 2007

यूपी बोर्ड धन्य हो !

सीबीएसई के नतीजे आने वाले हैं। सुना है, बहुत पढ़ाई करनी पड़ती है, तब जाकर सीबीएसई बोर्ड के बच्चे 80-90 फीसदी अंक ला पाते हैं। बड़ी मारा मारी है जनाब । लेकिन, अपन तो ठहरे देहाती- वो भी यूपी बोर्ड वाले।

भइया, किस्सा यूं याद आ गया, जब एक सीबीएसई बोर्ड वाले बच्चे को रिलज्ट के तनावग्रस्त हुए देखा। बहरहाल, अपन को भरोसा है कि वो पास हो जाएगा। दिक्कत यह है कि बच्चे पास नहीं होना चाहते, नंबरों में छप्पर फाड़ देना चाहते हैं। अगर 100 से भी ज्यादा नंबर लाने के लिए कोई ट्यूशन शुरु हो जाए तो बच्चे वहां भी जाने लगें।

बहरहाल,अपना किस्सा तो पास होने वाला है। यूपी बोर्ड के दसवीं के इम्तिहान के नतीजे आने को थे। उन दिनों अख़बार में रिजल्ट प्रकाशित होता था। नेट-फेट कुछ नहीं था। ये सुविधा नहीं थी कि चुप्पे से रिलल्ट देखा और चादर तान के सो गए। तब तो पूरा मोहल्ला अखबार के पीछे दौड़ता था, और उसी वक्त झंडा गढ़ जाता था या उखड़ जाता था।

कल्याण सिंह ने नकल नहीं होने दी थी-लिहाजा सारे शेर ढक्कन हो लिए थे। अपन नकलची नहीं थे (कम से कम 12वीं तक) -लेकिन माहौल में इतना टेरर था कि फेल होने की पूरी आशंका थी। नतीजे वाला अखबार कानपुर से औरेया पहुंच चुका था। अपने चेहरे पर झूठी मुस्कुराहट तैर रही थी। पिता जी ने आश्वासन दिया- कुंभ का मेला नहीं है,जो....कोई बात नहीं-फेल हो गए तो भी कोई बात नहीं...

इस आश्वासन से बल मिला लेकिन डर के मारे दिल धक धक कर रहा था। पर यूपी बोर्ड धन्य हो....। यूपी बोर्ड के इतिहास में महज 14 फीसदी रिजल्ट आया और अपन पास हो गए। सेकेन्ड डिवीजन।

लेकिन,यूपी बोर्ड की सही मायने में उदारता 12वीं के इम्तिहान के दौरान दिखायी पड़ी। अपन मैथमेटेक्सि के छात्र थे। हालांकि, आज पूरे ब्लॉग जगत के सामने यह स्वीकार करता हूं कि अगर गणित का मतलब महज बीजगणित होता तो नंबरों में चंद गोल बीज से ज्यादा कभी कुछ नसीब नहीं होते। लेकिन, भगवान ने ही अंकगणित भी बनायी है। खैर, अपन मैथमेटिक्सि के छात्र थे। फिजिक्स-कैमिस्ट्री भी थी। गुमान था कि भौतिक विज्ञान में झंडा गाढ देंगे। हिन्दी-अंग्रेजी तारणहार बनेंगी। कैमिस्ट्री ठीक ठाक है ही और गणित में भी 45-50 नंबर आ ही जाएंगे।

हिन्दी-अग्रेजी और कैमिस्ट्री के पेपर ठीक ठाक निपट लिए। लेकिन,फिजिक्स का पेपर उतना शानदार नहीं हुआ-जितना सोचा था। लगा, अब फर्स्ट डिवीजन नहीं आएगी। मूड उखड़ गया तो अपन भी उखड़ लिए। सोचा, अब पेपर ही नहीं देने। ड्रॉप । फिर खयाल आया कि इम्तिहान देने नहीं पहुंचे तो घर पर पता चल जाएगा। मोहल्ले के लड़के सारा प्लान गुड़गोबर कर देंगे-सो तय किया कि पेपर देने पहुंचेगे पर लिखेंगे कुछ नहीं।

इसी दौरान,दोस्तों से बात हुई तो हमने कह डाला-"अपना पास होना तो मुश्किल है"

मजे की बात देखिए, एक दोस्त ने हम पर भरोसा जताया और बोला-"ऐसा हो नहीं सकता"

इस बात पर एक किलो रमाकांत की मिठाई की शर्त लग गई। हमने सोचा-चलो फेल होंगे, लेकिन मिठाई तो पक्की हो ही गई।
आखिरी इम्तिहान गणित का था। गणित में तीन पेपर होते थे। हमने पहले पेपर में कुछ नहीं लिखा अलबत्ता दो-चार सवाल आते थे तो उन्हें हल कर दिया। तीन घंटे बैठे रहे और चलते चलते सब सवाल काट कर "रफ" लिख डाला। दूसरे पेपर में भी यही खेल किया। तीसरे पेपर के साथ इंटर की परीक्षाएं खत्म होनी थी। खूब नकल हुई। दोस्त-यारों ने खाली बैठा देख कहा- क्या चाहिए, कौन सा सवाल...बताओ? अपन ने कहा, नहीं भाई, हो गया।

नतीजे आए, तो अपन उतने तनावग्रस्त नहीं थे। इस बार मालूम था कि फेल होना है। घर पर कोई कुछ न कहे, इसलिए घर पर भी ऐलान कर दिया कि फेल होना तय है।

लेकिन,धन्य हो यूपी बोर्ड। खुदा जाने किन मास्साब ने कॉपी जांची? उन रफ सवालों पर भी अंक दे डाले और गणित में चार ग्रेस मार्क्स के साथ हमें पास कर डाला। कुल अंक आए 50 फीसदी।

यूपी बोर्ड की इसी महिमा ने हमें पत्रकार बना दिया.....कैसे..यह किस्सा फिर कभी। हां, रिजल्ट आते ही एक किलो मिठाई खाने वो साला दोस्त भी फौरन टपक पड़ा था।

-पीयूष

रविवार, 29 अप्रैल 2007

कार में भूत !

आपकी कार में अगर भूत बैठ जाए तो क्या होगा? इस वक्त आप क्या करेंगे ?

जनाब होना क्या है। आपकी सिट्टी पिट्टी गुम हो जाएगी। इस वक्त आपको क्या करना है, जो करना है वो तो भूत को करना है।

भईया, दो दिन पहले मेरे साथ तो कुछ ऐसा ही हुआ। दरअसल, कार ड्राइव करते हुए हम अपने दफ़्तर जा रहे थे। जैसा हमेशा होता है कि जब आपको कहीं जल्दी पहुंचना होता है, आप लेट होते हैं, वैसा ही मेरे साथ हुआ। हुआ यूं कि अचानक कार के स्टीरियो ने रंग दिखाना शुरु कर दिया। गाना अपने आप बजता, फिर बंद हो जाता। लगभग चार मिनट के इस ड्रामे के बाद अपन इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि स्टीरियो का तार कुछ गड़बड़ हो गया है। लेकिन, ये क्या? इस निष्कर्ष पर पहुंचते ही हमारी कार का पावर स्टीयरिंग एकदम ट्रक के स्टीयरिंग सरीखा भारी हो गया। भारी ट्रैफिक के बीच ट्रक ( भारी कार) चलाने का अनुभव लिया ही था कि एकदम मोड़ पर इंडीगेटर दगा दे गया। कुछ देर पहले तक अच्छे-खासे जल रहे इंडीगेटर ने काम करना बंद कर दिया।
इन हरकतों के बीच वास्तव में एक पल को मुझे लगा कि कार में कोई भूत-वूत तो नहीं आ गया है? अपन ने गाड़ी रोकी तो कार का दरवाजा भी कुछ पंगा करने लगा। बहरहाल, कार से निकलकर जांच ( अल्प ज्ञान के बूते) की तो कुछ समझ नहीं आया-लेकिन दोबारा कार स्टार्ट करने की कोशिश की तो वो स्टार्ट नहीं हुई। अब खड़े रहो घोंचू से...।

बहरहाल,मारुति हेल्प लाइन पर फोन करने के बाद मैकेनिक आया-उसने गाड़ी शुरु की और हम अपने दफ्तर पहुंचे। इस बीच, इन भूतहा हरकतों का राज़ फाश हुआ। वो यह कि कार की बैटरी के प्राण पखेरु होने को है....।

लिजिए लग गया चूना ढाई-तीन हज़ार रुपये का.....।

-पीयूष

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2007

"मुझे गुप्त रोग हुआ है"

"मुझे गुप्त रोग हुआ है"- दरअसल, ये स्टेटमेंट ही 1000 वोल्ट के करंट वाला है। लेकिन, साहब घबराने की बात नहीं-ये महज़ एक किस्सा है। किस्सा ऐसा-जिसने हमें भी कभी जोरदार करंट लगाया था।

बात कई साल पुरानी है। हम अपने परिवार समेत घर में बैठे गप्पबाजी कर रहे थे कि एक कज़िन की तबियत कुछ नासाज़ दिखायी दी। वो बालक उस वक्त करीब छह-सात साल का रहा होगा। हमने उससे पूछा कि- तबियत को क्या हुआ? उसने सीधे सीधे जवाब दे डाला-"मुझे गुप्त रोग हुआ है।"

उसके इस बयान को सुनकर वहां बैठे तमाम लोगों को एक पल के लिए मानों सांप सूंघ गया। सात-आठ साल का बच्चा यह क्या कह रहा है। लेकिन,जब इस गुप्त रोग का खुलासा हुआ-तो सभी ने पेट पकड़कर हंसना शुरु कर दिया। दरअसल,बालक के कहने का मतलब यह था कि उसकी तबियत किस वजह से नासाज़ है-यह उसे भी नहीं पता अलबत्ता तबियत कुछ गड़बड़ जरुर है। बस, इस गुप्त टाइप की बीमारी को उसने गुप्त रोग कह डाला। वैसे, इस शब्द "गुप्त रोग" के बारे में बालक ने तीन दिन पहले ही कानपुर से दिल्ली आते वक्त ट्रेन में बैठे बैठे दीवारों पर पढ़ा था।

विज्ञापनों की भाषा हमेशा से बच्चों के दिल पर असर डालती रही है। इस बात की तस्दीक यह किस्सा भी करता है और इससे पहले वाला किस्सा भी,जिसमें मैंने बताया था कि कैसे मेरे बालक ने कार्टून की भाषा का इस्तेमाल करते हुए हमें सरेबाजार लुच्चा साबित कर डाला था।

-पीयूष

मंगलवार, 24 अप्रैल 2007

वो बच्चा अपन लुच्चा

बच्चों की जुबां बदल गई है। बच्चे भले ही अभी भी मन के सच्चे हो, लेकिन कभी कभी हरकत ऐसी कर डालते हैं कि आप दीन-दुनिया के सामने लुच्चे साबित हो जाते हैं।

चंद रोज़ पहले की बात है। हम अपने साहबजादे को लेकर अपना स्टेटस बढ़ाने (खरीदने की औकात नहीं,पर एक दो पॉलिथीन टांग लो ताकि लगे कुछ खरीदा है) मॉल घूमने पहुंचे। साहबजादे अभी अभी तीन साल के हुए हैं और उनकी जुबां में तुतलाना बचा हुआ है। बहरहाल, मॉल में उनका इंटरेस्ट घूमना नहीं बल्कि झूले झूलना, बैटरी वाली कार चलाना वगैरह मे होता है। शनिवार के दिन दो बार पांच पांच मिनट कार में चक्कर लगाने के बाद जब जनाब के उतरने की बारी आयी तो साहब रोने लगे। हमने कहा-भइया, 100 रुपये ढीले हो गए हैं, अब आओ कुछ आइसक्रीम-वाइसक्रीम खाकर घर चलते हैं। लेकिन, जनाब टस से मस नहीं। हमारे बाप ने हमें कभी नहीं मारा तो इस परंपरा पर अपन भी टिके हुए हैं। लेकिन जनाब हमने थोड़ी आंखें क्या तरेरी ग़ज़ब हो गया।

भाई साहब ने पचासों लोगों की मौजूदगी में हमारे सामने हाथ जोड़ लिए और कहने लगा-"पापा, मुझे माफ कर दो, पापा मुझे माफ कर दो।" ये ऐतिहासिक दृश्य देखकर अपना खून सूख गया।
हाईप्रोफाइल लोग अपन जैसे टुच्चे आदमी की तरफ घूरे जा रहे थे-लेकिन बालक की शताब्दी स्पीड वाली जुबां से लगातार निकले जा रहा था-"पापा मुझे माफ कर दो "। कभी बच्चे को मारा नहीं और न इस बार ऐसी कोई गुंजाइश थी-फिर ऐसा क्यों ?


बहरहाल, ज़ालिम ज़माने के सामने बच्चे को बहलाया-फुसलाया और फौरन कार में दो चक्कर और लगवाए।

लेकिन, इस हरकत के पीछे का सच कुछ दिन पहले पता चला,जब हम बालक के साथ टीवी पर कार्टून देख रहे थे। इस दौरान, हमें बहुत से वो शब्द सुनायी दिए-जो हमारा बालक अब बड़बड़ाने लगा है। इसी में एक कार्टून करेक्टर बोला भी- "मुझे माफ कर दो- मुझे माफ कर दो"।

अपने समझ में आ गया था कि कार्टून ने बच्चों की भाषा बदल दी है।

वैसे,परसो बालक हमारे साथ खेलते हुए अचानक चिल्लाया- "कोई मेरी हेल्प करेगा"। इस बार हमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि वास्तव में,कार्टून फिल्मों ने बच्चों की जुबां बदल डाली है।

-पीयूष

सोमवार, 16 अप्रैल 2007

या अल्लाह, मज़ाक में मिट गई मुहब्बत

आप हंसते हैं-मुस्कुराते हैं, हमेशा हल्की फुल्की बातें करते हैं ताकि लोगों को खुश रख सकें तो यह भी ठीक नहीं। आप विदूषक नहीं है,आप बेहतरीन स्टूडेंट भी हैं लेकिन आपकी बातें लोगों को गुदगुदाती हैं तो ये भी ठीक नहीं।

भईया, ये मूल्यवान अनुभव में हमनें अपनी ही ज़िंदगी से सीखा है। किस्सा करीब 12 साल पुराना है। कॉलेज के दिनों में एक बालिका(A) हमें अच्छी लगने लगी। हमारी उससे गहरी दोस्ती हो गई।

क्रमश:

एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है
एक लड़की का हाल पूछना दूसरी से बेगाना बना देता है...

आगे बढ़े:

तो जनाब हुआ यों कि इस बालिका की एक खास सहेली(B) भी थी। हमारी भी वो अच्छी मित्र थी-लेकिन लगातार दो दिन वो क्लास में नहीं आयी तो हमने अपनी गहरी दोस्त से पूछ डाला-"क्या बात है...वो(B) क्यों नहीं आ रही।"

वैसे, आपकी किस्मत अगर लुढ़िस(शब्द पर गौर फरमाएं) हो तो आप ऐसी हरकत कर डालते हैं कि मुहब्बत पर पानी फिर ही जाता है। एक दिन तमाम दोस्तों के बीच B ने कहा कि उसे हक़ीकत फिल्म का एक गाना बहुत पसंद है-लेकिन वो कैसेट कहीं नहीं मिलती। अपनी किस्मत खराब थी कि अगले ही दिन एक दुकान पर हम पहुंचे कि हकीकत फिल्म की वो कैसेट हमें मिल गईं। हमने खरीदी और B को भेंट कर दी। अब,हमें क्या पता था कि इस भेंट का गलत अर्थ निकाल लिया जाएगा।

बहरहाल, कहानी के इस दौर में एक दिन अचानक A ने कहा कि उसे हमसे कोई बहुत ज़रुरी बात करनी है। हमनें सोचा कि चलो...कुछ प्यारभरी इनकी भी सुन लेते हैं।

लेकिन,A ने तो पूरी कहानी का ऐसा पलीता किया कि क्या बताएं। A ने हमसे कहा कि अगर B तुम्हें पसंद है तो तुम उससे जाकर कहो। क्योंकि,इस तरह के हिंट वहां से भी मिल रहे हैं। अब, अपन ए के चक्कर में- प्रस्ताव बी का मिला तो दिमाग चकरघिन्नी होने लगा। लेकिन,उसी वक्त हमने होश संभाला। सोच लिया कि अगर सीधी सीधी बात नहीं की तो पूरी ज़िंदगी अफ़सोर रहेगा। प्रेम के इज़हार का कोई मौका तो नहीं था लेकिन गंगा उल्टी दिशा में बह जाए-इससे पहले ही कुआँ खोद डालना था। हमनें आवाज़ भारी की और कहा "ए, मैं तुम्हें पसंद करता हूं।" लेकिन,हमें क्या पता था कि पूर्व जन्म में किए पाप मज़ाक-मज़ाक में इतने भारी पड़ेगे कि मुहब्बत ही मेंट डालेंगे। ए ने एक पल हमारे चेहरे को निहारा और फिर ज़ोर से हंसकर बोली-"मजाक मत करो पीयूष"।

मंगलवार, 10 अप्रैल 2007

एक गुगली, सात आउट

मेरे दिल के किसी कोने में बैठा एक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देखकर दुनिया बड़ा होने से डरता है
-राजेश रेड्डी

बड़ो की दुनिया वास्तव में कुछ ऐसी ही है। ज़िंदगी की तमाम दुश्वारियां
इंसान को एक चक्रव्यूह में घेरे रहती हैं। ऐसे में, बचपन की कुछ शरारतें
याद आती हैं - तो चेहरे पर अनायास मुस्कुराहट तैर जाती है।

बचपन के इन्हीं दिनों का एक किस्सा मुझे याद आ गया। ये बात है 1989-90
की। उन दिनों मैं क्लास आठ में हुआ करता था। औरेया के जिस तथाकथित
"कॉन्वेंट" स्कूल में हम पढ़ा करते थे-वहां वास्तव में हम खेलने जाया
करते थे। आलम ये कि स्कूल में बैग के साथ हेलमेट, विकेट, पैड समेत
क्रिकेट का सारा सामान भी हम दोस्त टांग कर ले जाया करते थे। इसके बाद,
इंटरवल तक पढ़ाई - फिर खिलाई। यानी आधी पाली सिर्फ खेला करते थे। क्रिकेट
का जुनून था उन दिनों। मज़ेदार बात ये कि हमारी क्लास में महज आठ बच्चे
हुआ करते थे। इनमें से एक मेरा पड़ोसी और बेहद खास दोस्त शामिल था।
छात्रों में एक बालिका थी। आठ खिलाड़ियों में क्रिकेट क्या खाक
खेलते-लिहाजा क्लास सात के छात्रों की भी छुट्टी करा ली जाती थी।

हमारे स्कूल की प्रीसिंपल साहिबा हमारे घर के पास रहती थीं और बहुत अच्छी
थी। इंटरवल के बाद खेलने-कूदने की इजाजत देने में कोई आनाकानी नहीं करती
थीं। उनकी इजाजत ने हमें आधी पाली में खेल की ऐसी लत लगा दी कि छुट्टी न
मिलने पर हम सातों छात्र स्कूल से भाग जाते। पता नहीं, इस बात की कभी
घरवालों से शिकायत क्यों नहीं की गई या स्कूल में अगले दिन पीटा क्यों
नहीं गया ( शायद, इतने ब्रिलिएंट बच्चों को उनकी दूरदर्शी नज़रों ने उसी
वक्त पहचान लिया था ! ), पर इजाजत न मिलने पर अक्सर ऐसा होता था।
उन दिनों स्कूल के सामने एक रेशम फॉर्म था। स्कूल से भागकर हम लोग सीधे
रेशम फॉर्म में घुस जाते और दो-तीन घंटे तक शहतूत खाते थे।

उन दिनों औरेया बहुत छोटा सा कस्बा था। अब ज़िला हो गया है। हमारा जूनियर
हाई स्कूल घर से काफी दूर था, लेकिन बाईक से दूरी 10 मिनट से ज्यादा नहीं
थी। इसी दौरान, एक दिन अचानक दोपहर में पिताश्री को क्या सूझा कि वो
वीसीआर खरीद लाए। वीसीआर पर फिल्म देखना खासा रॉयल था, सो पिताजी ने इस
सम्मान में अपने बड़े बेटे को भी भागीदार बनाना चाहा और मेरे छोटे भाई के
साथ स्कूल टपक गए।

लेकिन, हम स्कूल में होते तो उन्हें मिलते। उन्हें पहली बार पता चला कि
उनका बड़ा बेटा इतना लायक हो गया है कि अपने पैरों पर स्कूल से भागने लगा
है (वहां अपहरण का बड़ा खतरा रहता था)। उन्होंने वहां टीचरों से जो
कहा,सो कहा, पर हम दोनों( मैं और दोस्त) के बैग लेकर चलता हो लिए।
काले-मीठे शहतूत खाकर मन भरा तो हम भी स्कूल पहुंचे। पता चला "अंकल जी तो
बैग ले गए"। अब, डर के मारे हाथ-पैर फूल गए। ऐसा लगा कि मानो बापू ने एक ही गुगली में सातों खिलाड़ियों को क्लीन बोल्ड कर डाला हो। नौबत गश खाकर वहीं गिरने की आ गई।
आंखों के सामने बेंत से पिटाई का दृश्य घूमने लगा( हालांकि कभी
ऐसे पीटा नहीं गया)। लगा कि आज भागने के अपने हुनर का इस्तेमाल घर छोड़कर
भागने के लिए कर लिया जाए। कहां जाए, क्या करें, किससे कहें ? दो घंटे
सैकड़ों विकल्पों पर विचार करने के बाद लगा कि अपनी औकात अभी घर लौट कर
जाने के अलावा किसी और चीज़ की नहीं है। घर पहुंचे। वहां प्रिसिपल साहिबा
समेत घर-पड़ोसियों की पंचायत चल रही थी।

बहरहाल, पिटाई नहीं हुई, हड़काई बहुत हुई। मां ने हड़काई लगाई। पिताजी ने
बिना कुछ कहे महज़ घूर कर साफ कर दिया कि स्कूल से भागने का खेल खत्म हो
गया है। पेपर नज़दीक हैं-पढ़ाई करो।

आज, 17-18 साल बाद न जाने क्यों रेशम फॉर्म के उन शहतूत के पेड़ों की याद
फिर आ रही है।

-पीयूष

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2007

काश! मैं तब वोट डाल पाता

"मैं और वो आमने-सामने थे। पिटने की आशंका भर से मेरे तोते उड़ गए।
लेकिन,वो मुस्कुराया और फिर मुझे टकटकी लगाकर देखने लगा.....।"

ये ट्रेलर है-एक छोटे से किस्से का। ट्रेलर इसलिए क्योंकि आप पूरी फिल्म
देखें। बहरहाल, अब आप फिल्म देखें या न देखें-हमें तो थिएटर वाले
हैं-पूरी फिल्म चलाएंगे।

दिल्ली में एमसीडी चुनाव के मौके पर ये किस्सा याद आ गया। किस्सा कुछ यूं है कि खासी भीड़ में वोटिंग और फर्जी वोटिंग के साहस के मज़े के हमनें किस्से सुनें तो मन हुआ कि क्यों न वोट डाला जाए।

ए कहिन वोट डालें, बी कहिन वोट डालें, फत्ते कहिन वोट डालें तो हमऊं कहिन
चलो वोट डालें। लेकिन, हमारी उम्र तो थी महज 14-15 साल। लेकिन,ये चुनाव
साला हर पांच साल में ही आता है। अब क्या करें ? वोटिंग के दिन हमने देखा
कि मुहल्ले के कुछ यार-दोस्त फर्जी वोट डाल चुके हैं और अब दूसरे की
तैयारी कर रहे हैं। हमने भी एक फर्जी पर्ची कटायी और वोट डालने के लिए
मुहल्ले के सामने इंटर कॉलेज में बने मतदान केंद्र की लाइन में लग गए।
ये बात शायद 1991-92 का है। जैसे-जैसे कतार आगे बढ़ रही थी-हमारा दिल
बल्लियों उछलने लगा। दरअसल, यह अनुभव शायद कुछ ऐसा ही था-मानो
दादा-परदादा शादी से पहले सेक्स न करने का फ़रमान सुना चुके हैं और साहब
जादे अपने बूते गुलछर्रे उड़ा आए। बहरहाल, वोट डालने के लिए हम बिलकुल उस
कमरे में पहुंच गए-जहां वोट डाला जाना था। लेकिन, जैसे ही मैंने अपनी
पर्ची देकर बैलट पेपर लेना चाहा, काउंटर पर खड़े एक पोलिंग एजेंट ने देख
लिया। उसने मेरा "मासूम चेहरा" देखा, "नन्हीं उमरिया" और हाथ में पर्ची
देखी।

अब "मैं और वो आमने-सामने थे। पिटने की आशंका भर से मेरे तोते उड़ गए।
लेकिन,वो मुस्कुराया और फिर मुझे टकटकी लगाकर देखने लगा.....।"
दो पल देखने के बाद वो पोलिंग एजेंट मुस्कुरा कर बोला-" बेटा, घर
जाओ-अगले चुनाव में वोट डालना।"

मेरा सुंदर सपना टूट गया। अरमान बिखर गए। कुछ दोस्तों ने हंसी उड़ायी, पर
मैं करता तो क्या ?

हां, मैंने पांच साल बाद वोट डाला। अब उम्र 18 साल हो चुकी थी। एक
जिम्मेदारी निभाने को थोड़ा संतोष भले हो-लेकिन फर्जी वोट डालने सरीखी
उमंग नहीं थी।

-पीयूष

बुधवार, 4 अप्रैल 2007

हाय, चैनल वालों ने जात मेरी लूटी रे....

जोधपुर के पुराने क़िले के पिछवाड़े शूटिंग चल रही है। बैकग्राउण्ड में क़िला दिखना है - थोड़ी दूर पर श्मशान। लाइट-साउण्ड और धुएँ की व्यवस्था की जा चुकी है। डायरेक्टर (कार्यक्रम का प्रोड्यूसर) ने कलाकार को अपना दृश्य समझा दिया है.... लेकिन तीन-चार री-टेक के बाद भी मज़ा नहीं आ रहा। वजह?

चैनल के एक भूतहा कार्यक्रम की शूटिंग के दौरान दृश्य श्मशान में बैठकर इंसान का मांस खाने का है। रिक्रिएशन यानि नाट्य रुपांतरण में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है - लेकिन डायरेक्टर को लगा कि दृश्य फ़िल्माने वाला कलाकार का चेहरा कुछ ज़्यादा ही शहरी या मॉर्डन है।

आदेश हुआ कि कोई दूसरा कलाकार लाया जाए। अब, रात के आठ बजे, कहाँ से लाएँ कोई दूसरा कलाकार? लेकिन, शहर में ही रहने वाले ड्राईवर ने कहा कि वो कुछ व्यवस्था कर लाता है। थोड़ी देर में एक 15-16 साल की लड़की उसके साथ हाज़िर थी। डायरेक्टर ने अब उसको दृश्य समझाया। लेकिन, सीन सुनते ही लड़की उखड़ गई - "मैं ब्राह्मण हूँ। मैं मांस नहीं खाती... छि: छि: छि:"। डायरेक्टर ने उसे समझाया कि शव के पास बैठकर मांस खाना नहीं है बल्कि महज़ एक्टिंग करनी है। इसके लिए लड़की को एक हज़ार रुपये देना भी तय किया गया।

लड़की ने परफ़ेक्ट एक्टिंग की। भूतहा कार्यक्रम हिट रहा। लेकिन, इस प्रोग्राम के प्रसारित होने के दो-तीन दिन बाद लड़की का फ़ोन आया - "आप लोगों ने मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर दी। मुझसे झूठ बोला। मैं ब्राह्मण लड़की हूँ। अब, टीवी पर मुझे मांस खाते हुए देखकर मेरे परिवार ने ही मुझे निकाल दिया है। आपने तो मांस कहा था - लेकिन टीवी पर बार-बार बताया गया कि मैं इंसान का मांस खाती हूँ।"

दरअसल, यह क़िस्सा है एक टेलीविजन चैनल के लिए बनने वाले एक भूतहा कार्यक्रम के दौरान का। यह लड़की ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी। उसका परिवार भी ग्रामीण परिवारों जैसा सामान्य था। चैनल वालों ने उस लड़की का इस्तेमाल कर लिया - लेकिन पूरा सच नहीं बताया। वैसे, ये ज़्यादा बड़ी घटना नहीं है। रिक्रिएशन यानी नाट्य रुपांतरण के दौरान कई बार घटनास्थल के आस-पास के लोग ही एक्टिंग के लिए चुन लिए जाते हैं - लेकिन इस कोरी नौटंकी में कभी-कभार किसी की जात भी लुट जाती है.....।

अब, इसका ज़िम्मेदार कौन है - इसका जवाब कोई नहीं देता?

मंगलवार, 3 अप्रैल 2007

पियक्कड़ों से पंगा

दिल्ली के पियक्कड़ परेशान हैं। मैखाने चार दिन तक बंद रहेंगे। एमसीडी चुनाव पांच अप्रैल को हैं-लिहाजा उस दिन शराब की दुकानें बंद हैं। इससे एक दिन पहले यानी चार अप्रैल को भी मयखानों पर ताला जड़ा रहेगा। किस्मत का खेल देखिए-छह अप्रैल को गुड फ्राइडे पड़ गया, सो उस दिन भी पियक्कड़ों को गला तर्र करने में दिक्कत होनी है और सात अप्रैल को मतों की गिनती होगी, इसलिए पीने वालों को दारु मिलने में परेशानी होगी।

लेकिन,किस्सा ये नहीं है। ये तो एक ख़बर है-जिसके चलते दिल्ली के पियक्कड़ परेशान है। समझदार दारुबाजों ने दारु का स्टॉक जमा कर लिया है। दरअसल, इस ख़बर को पढ़ने के बाद एक दिलचस्प किस्सा याद आ गया।

बात कुछ साल पहले की है। दिल्ली में तब भी लगातार दो दिन ड्राईडे था। दूसरे दिन अचानक शाम के अखबार में एक ख़बर छपी। बड़े फांट वाली हेडलाइन थी-लाखों ने मुफ्त पी, सैकड़ों कल पीएंगे।
मुझे याद है कि बस में बैठे करीब 60 लोगों में से 20-25 लोगों ने महज हेडलाइन पढ़कर अखबार खरीद लिया। लेकिन, मज़ा तब आया-जब सभी ने ख़बर पढ़ी। दरअसल, यह ख़बर पल्स पोलियो डे से संबंधित थी। जिसमें कहा गया था- लाखों बच्चों को मुफ्त में पोलिया की दवा पिलाई गई और जो छूट गए हैं उन्हें कल पिलाई जाएगी।

यानि ड्राई डे में पियक्कडों से एक अखबार ने ठिठौली कर दी...
-पीयूष

सोमवार, 2 अप्रैल 2007

केतु - काला कुत्ता और कंटाप पे चाँटा

केतु वैसे भी मारक ग्रह माना जाता है - लेकिन एक दिन इसने हमारी पिटाई का इंतज़ाम भी कर दिया था। दरअसल, मामला कुछ ऐसा है कि कॉलेज के दिनों में हम अपने दोस्त के साथ बैठे बतिया रहे थे। ज्योतिष में अपनी थोड़ी-बहुत रुचि है - लिहाज़ा कुछ सीखे फ़ंडे ठीक हैं या नहीं - ये जानने के लिए प्रैक्टिकल करते रहते हैं।

उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। अचानक कैंटीन में एक छात्र पहुँचा। उसका हाव-भाव और चेहरा कुछ ऐसा था कि मुझे लगा कि इसकी कुंडली में केतु कुछ गड़बड़ जरुर होगा (सीखे हुए फ़ंडों पर आधारित)। इसी दौरान, दोस्त से अचानक ज्योतिष पर चर्चा हो उठी तो ये बात हमने उससे भी कह डाली।

दोस्त ने कौतुहल में पूछा कि तुम ऐसा ऐसे कह सकते हो कि उसका केतु ख़राब है तो मैंने सामान्य शब्दों में कहा कि - "वैसे, कुछ ज्योतिषीय लक्षण हैं लेकिन सामान्य रुप से कहें तो उसके दाँत कुछ बड़े और बाहर को निकले हुए हैं, रंग और लंबाई भी कुछ ऐसे था कि उसका केतु ख़राब होने की आशंका है। इसके अलावा, मुझे लगता है कि उसे कभी न कभी काले कुत्ते ने काटा होगा।"

ये बात सीधे-सीधे मेरे और दोस्त के बीच थी। लेकिन, कुछ दोस्त ऐसे भी होते हैं - जो आपके दुश्मनों को मात कर दें। भाई ने अचानक कहा कि मैं उससे जाकर पूछता हूँ। मैंने कहा - "ये पूछना कि क्या उसे कभी किसी कुत्ते ने काटा है?" दोस्त ने उसके पास जो पूछा उसने हमारी ऐसी-तैसी करवा दी। दोस्त ने पूछा - "क्या तुम्हें कभी किसी काले कुत्ते ने काटा है।" उस छात्र ने जवाब दिया - "नहीं, लेकिन क्या बात है। तुम क्यों पूछ रहे हो"। हमारे मित्र का जवाब सुनिए - "वो पीयूष कह रहा है कि तुम्हारें दांत निकले हुए हैं इसलिए ज़रुर तुम्हें काले कुत्ते ने काटा होगा।"

लीजिए, यह जवाब किसी को भी बुरा लगेगा - तो उस छात्र को भी लग गया। थोड़ी देर में पता चला कि 40-50 छात्रों ने मुझे घेर लिया। थोड़ा बहुत हड़काया कि तुम ऐसे कैसे बात करते हो। मैंने उन्हें समझाया कि भइया अपना ऐसा कोई मक़सद नहीं था। हम ज्योतिष पर कुछ बात कर रहे थे और हमारे कहने का उद्देश्य किसी के शारीरिक हाव-भाव पर टीका-टिप्पणी करने का नहीं था। बहरहाल, दो-चार मिनट तक उन्होंने मुझे हड़काया। लगा कि कंटाप पर बजने को है - लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

इस क़िस्से की सीख यही है कि ऐसे हालात में तय कर लेना चाहिए कि आपका दोस्त या अन्य शख़्स किसी तीसरे से आपकी कही बात को किस तरह कहने जा रहा है। बहरहाल, इस घटना के बाद ख़ून में उबाल आया तो तय कर लिया कि अब उसकी हेकड़ी निकाल ही दी जाए। यार-दोस्तों ने भी वक़्त मुकर्रर कर दिया कि अगली सुबह कॉलेज में उसका बैंड-बाजा बजा ही दिया जाए। लेकिन, रात में ख़याल आया कि किसी की शारीरिक कमज़ोरी अथवा बनावट पर टिप्पणी करोगे तो उसे ख़राब लगना लाज़िमी है।

फ़िलहाल, वो जनाब इस ख़ुशफ़हमी में होंगे कि उन्होंने हमें हड़का दिया था। लेकिन, आज ऐसा लगता है कि अगर अब कभी वो लड़का मुझे मिल गया तो उसका टेंटुआ पकड़कर एक बात तो समझा दी जाए कि भइया तुमने हमें हड़काया नहीं था बल्कि हम खुद शांत हो गए थे क्योंकि हमें लगा था कि हमसे ग़लती हो गई। वरना, अपने शहर में किसी दूसरे शहर का छोरा हड़का जाए - ये तो घोर इनसलेट है भइए !

शनिवार, 31 मार्च 2007

कोई तो मरी कुतिया ढूंढ लाओ

लोग टूट जाते हैं, एक घर बनाने में
वो तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
- बशीर बद्र

आज अचानक होम लोन महँगा होने की ख़बर देखी तो बशीर बद्र का यह शेर याद आ गया। हालाँकि, सीधे-सीधे इस शेर का ख़बर से कोई लेना-देना नहीं है - लेकिन ध्यान आया कि घर बनाना कितना मुश्किल है।

अपने घर की याद आयी तो घर में काफ़ी दिनों से आयी सीलन की समस्या भी याद आ गई। बाथरूम में ज़बरदस्त सीलन है - लेकिन सोसाइटी के प्रेसिडेंट, वाइस प्रेसिडेंट आदि आदि को कोई चिंता ही नहीं (कई बार शिकायत करने के बावजूद)। बहरहाल, ये बोरिंग क़िस्सा मेरे घर और उसकी समस्याओं का नहीं बल्कि इस समस्या से याद आए एक दूसरे क़िस्से का है।

ये किस्सा है नॉर्वे का। नॉर्वे बहुत छोटा देश है, जहाँ महज़ कुछ लाख की आबादी है। भाई लोग सब खाते-पीते हैं और आसपास कोई पाकिस्तान-बांग्लादेश या चीन जैसा देश नहीं है कि हर वक़्त सीने पर मूंग दलता रहे। उसी नॉर्वे में हमारे एक परिचित संजीव रहते हैं। उनका कुछ लिखने-पढ़ने का धंधा है। जनाब काफ़ी साल से नॉर्वे में रह रहे थे तो वहाँ की एक राजनीतिक पार्टी ने उन्हें चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दे डाला। वैसे, वहाँ ज़्यादा भारतीय नहीं हैं लेकिन क़रीब तीस-चालीस हज़ार भारतीय और कुछ हज़ार पाकिस्तानी हैं। इन्हें लुभाने के लिए ही संजीव को टिकट देने का मन बनाया गया।

संजीव के मुताबिक़ - उन्हें टिकट के सिलसिले में वहाँ प्रधानमंत्री के घर बुलाया गया। भाई साहब पहुँचे तो दनादन घर के भीतर घुसे चले गए। कहीं कोई पूछताछ नहीं - कोई लिखा पढ़त नहीं। संजीव परेशान - क्या हुआ? थोड़ी देर में एक सज्जन ने उन्हें बैठने को कहा तो संजीव बैठ गए। पता चला चंद मिनट बाद खुद प्रधानमंत्री दोनों के लिए चाय बनाते हुए संजीव के पास पहुँच गए। क्या भारत में कभी इस दृश्य की कल्पना की जा सकती है?

संजीव जीत गए तो रोज़ाना अपने क्षेत्र में होने वाली बैठको में भी जाना पड़ा। मज़े की बात ये कि नॉर्वे में कोई समस्या ही नहीं। इस बैठक में लोग चाय की चुस्कियाँ लेते और एक दूसरे से पूछते कि कहीं कोई समस्या हो तो बताएँ - चल कर उसे हल किया जाए।

बहरहाल, हद तो तब हो गई - जब एक महीने से ज़्यादा वक़्त तक कोई समस्या नहीं मिली। अचानक एक बैठक में एक लोकल नेता साहब इसी बात पर उखड़ गए कि कहीं कोई समस्या ही नहीं है तो हम यहाँ क्या झक़ मार रहे हैं। उन्होंने अचानक तैश में कहा - "अरे कोई तो कहीं मरी हुई कुतिया ढूंढ लाओ या कहीं किसी खंभे पर टूटा बल्ब दिखाओ"।

साफ़ है - नॉर्वे में ज़िन्दगी अपने ढर्रे पर चली जा रही हैं। कहीं कोई समस्या कोई सामाजिक परेशानी नहीं। पर इस क़िस्से के बाद मुझे लगा कि क्या कोई भारतीय बिना समस्या के कहीं रह सकता है, ज़िन्दगी का पूरा मज़ा ले सकता है?

शुक्रवार, 30 मार्च 2007

बटई की ब्लू फ़िल्म

दोनों एक दूसरे के सामने थे। अवाक्। क्या करें, कहाँ जाएँ? अब क्या होगा।
क्या सोचेगा वो?

ये पहेली नहीं एक किस्सा है। किस्सा है - हमारे मुहल्ले के राजेश उर्फ़ बटई का। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है बटई का नाम लटई पर रखा गया था। बचपन में बटई के पतंगबाज़ी के शौक़ के चक्कर में उसका नाम लटई पड़ा। शायद, पतंगाबज़ी में इस्तेमाल होने वाली किसी चीज़ का नाम लटई हुआ करता था।

लेकिन, किस्सा पतंगबाज़ी का नहीं- ब्लू फ़िल्म बाज़ी का है। जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही बटई ने भी ब्लू फिल्म देखने का शौक फरमाना शुरु किया। उन दिनों औरेया में महज़ तीन थिएटर हुआ करते थे। इनमें जब कभी कोई एडल्ट फ़िल्म लगती - तो शहर के ज़्यादातर नौजवान मौका ताड़कर फिल्म निपटा देते थे।

वैसे, दर्शक एडल्ट फिल्म से ज़्यादा उन निहायत अश्लील दृश्यों को देखने थिएटर पहुँचते थे, जो थिएटर वाला बीच में घुसेड़ देता था। उस ऐतिहासिक वक़्त में कृष्णा थिएटर में एक एडल्ट फिल्म लगी। नाम याद नहीं। बटई फिल्म देखने पहुँचा। रात का शो था। फ़िल्म के शो के बीच में हर आठ-दस मिनट पर कुछ मारु दृश्य आता तो बटई "वाह-वाह " करता। इसी दौरान, जनाब एक-आध बार पास बैठे दूसरे दर्शक के पैर पर भी हाथ मार कर कहता - "वाह, गुरु मजा आ गया"। बटई से एक सीट छोड़कर पास बैठे सज्जन भी इसी तरह कुछ फ़िल्म के मज़े ले रहे थे। हालांकि, वो कमेंट नहीं कर रहे थे लेकिन हँसने की आवाज़ में उनकी खिलखिलाती हँसी भी शामिल होती थी।

कई धाँसू सीन आए। कई बार वाह-वाह हुई। फिर इंटरवल हुआ। दर्शकों ने कहा कि एक बार फिर ब्लू फिल्म जोड़ दे तो मज़ा आ जाए। लेकिन, इसी बीच बटई जनाब थम्सअप खरीदने स्टॉल पर पहुंचे तो....?
दोनों एक दूसरे के सामने थे। अवाक्। क्या करें, कहां जाएं? अब क्या होगा। क्या सोचेगा वो?
दरअसल, बटई के सामने उसके पिताजी खड़े थे। रात का शो था - दोनों थिएटर के भीतर बने स्टॉल पर थे - लिहाज़ा बहाना बनाना बेकार था। दिन के वक़्त बटई के बापू ने उसे थिएटर में देखा होता तो उस पर जूते बजना तय था। मौक़ा था कहने का "साले, दुकान छोड़कर यहाँ फिल्म देखने चला आया। वो भी इत्ती गंदी।"

लेकिन, अब मामला उल्टा था। बटई के बापू भी फँस चुके थे। कहना-सुनना बेकार था। बटई ने कहा - "रातउ में चैन नहीं है तुम्हें। उते अम्मा इंतजार कर रही होएँ और तुम इते फिल्म देखन चले आए हो"।
बटई ने इतना कहा और थिएटर से बाहर निकल आया। लेकिन, बापू ने पूरी फिल्म देखी। वो पैसे की कद्र जानते थे!

-पीयूष

गुरुवार, 29 मार्च 2007

टिड्डे की भैंस ही बड़ी थी

धुरंधर नकलची दूसरे के लिखने के अंदाज से समझ लेते हैं कि अगला क्या लिख मार रहा है। हमारा एक मित्र टिड्डे भी खुद को इसी अव्वल कोटि का नकलची मानता था। नाम की महिमा पर फिर कभी चर्चा करुंगा-फिलहाल गुण की चर्चा कर ली जाए। तो जनाब, टिड्डे भाई उच्चकोटि के नकलची होने के बावजूद हाईस्कूल में दो बार फेल हो चुके थे।

ये किस्सा शायद 1991 का है। उन दिनों उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार बनी। माननीय मुख्यमंत्री लंफटूश किस्म के छात्रों पर अति मेहरबान हुए-लिहाजा उन्होंने स्वकेंद्र परीक्षा प्रणाली लागू कर दी।

इसी दौर में टिड्डे जनाब भी पुन: हाईस्कूल के इम्तिहान में झंडा गाढ़ने के उद्देश्य से बैठे। इस बार उन्होंने दोस्तों से कसम उठवा ली कि नकल कराने में कोई कोताही नहीं बरती जाए। आखिर,गोल्डन चांस बार बार तो नहीं आता? मुहल्ले के दोस्तों ने भी सारा काम धाम छोड़कर हर इम्तिहान के दिन टिड्डे को नकल कराने का बीडा उठा लिया।

तो साहब, हाईस्कूल के इम्तिहान शुरु हुए। टिड्डे के दोस्तों (यानि मुझे मिलाकर) ने कभी स्कूल की छत फांदकर तो कभी टॉयलेट में बुलवाकर पूरी नकल पहुंचायी। चीटिंग के लिए जरुरी तमाम खर्रे मुहैया कराए। पर्च के हर सवाल का जवाब गाइड में किस नंबर के पेज पर है-ये बाकायदा बताया गया ताकि कोई लफड़ा न रहे।

टिड्डे ने भी इम्तिहान में धुआंधार कॉपियां भरीं। परीक्षाएं खत्म हुईं। झमाझम। रिजल्ट से पहले पार्टियों का दौर चल निकला। उन दिनों टिड्डे खुद अपनी चप्पलों की दुकान पर बैठने लगा था-लिहाजा जेब में दूसरे दोस्तों से
ज्यादा रकम हुआ करती थी।

लेकिन, नतीजा आया तो टिड्डे भाई का डिब्बा फिर गुल...। आखिर क्या हुआ? क्या यूपी बोर्ड पर मुकदमा ठोंक दें? सारे सवालों के जवाब किताब से मिलाकर हुबहू दिए गए गए हैं। जब जवाब में अपनी अक्ल लड़ाई ही नहीं गई (मना किया गया था) तो एक्साज़मनर फेल कैसे कर सकता है। भई,नंबर भले कम दे डाले पर फेल का तो कोई मतलब ही नहीं।

इस विषय पर आगे की रणनीति बनाने के लिए दोस्तों की एक बैठक हुई तो एक विद्वाव मित्र ने अनमोल सुझाव दिया। उसने कहा-टिड्डे से एक पेपर फिर हल करने को कहा जाए। मुमकिन है कि उसकी राइटिंग इतनी घसीटामार हो कि एक्साजमनर तो क्या उसका बाप भी न पढ़ पाया हो और उसने कहानी भंड कर दी हो।

वैसे, ज्यादातर दोस्तों को ये सुझाव नागवार गुजरा था-लेकिन फिर भी टिड्डे से पर्चा हल करने के लिए कह दिया गया। थमा दिया बॉयोलॉजी का पर्चा। टिड्डे ने करीब दो घंटे तक पूरी शिद्दत से पर्चा दिया। फिर, शान से बाहर
आकर बोला-लो हो गया।

लेकिन, टिड्डे की आंसरशीट देखकर सबने अपना माथा पकड़ लिया। क्यों? भईयां। टिड्डे साहब ने जवाबों के बीच ही लिख मारा "कृपया अगला पृष्ठ देखें"। इसी तरह,बीच में कई जगह लिखा गया-"चित्र संख्या 14.5, 14.6 आदि के अनुसार"। जनाब ने आनन फानन मे एक जगह गाइड का नाम भी लिख मारा। यानि कुल मिलाकर जैसा कहा कहा वैसा किया यानि अक्ल से काम नहीं लिया।

टिड्ड़े साहब तीसरी बार फेल होने के बाद आज भी अपनी दुकान पर बैठे हैं। वैसे, इस दिलचस्प किस्से को वो खुद भी खूब सुनाते हैं। हां, गौर करने वाली बात ये कि हाईस्कूल फेल होने से उनकी दुकानदारी पर कोई असर नहीं पड़ा। टिड्डे की चप्पलों की दुकान आज काफी बढ़ी हो चुकी है।

-पीयूष

मंगलवार, 27 मार्च 2007

बैल पर सलमान

सोचिए...कितना अद्भुत दृश्य हो-अगर हष्ट पुष्ट सल्लू मियां जेल से बैल पर बैठकर बाहर निकलें। काला बैल-गोरे सलमान। वाह..बहुत खूब। वैसे, यह दृश्य सिर्फ कल्पना की उपज है-लेकिन एक राष्ट्रीय चैनल पर यह समाचार दिखायी पड़ा-"सलमान बैल पर रिहा"। ये फ्लैश कई बार टेलीविजन पर प्रगट होता रहा।

ज्यादातर टेलीविजन चैनलों में तेज़ी से ख़बर प्रसारित करने का इतना दबाव होता है कि कई बार बेकिंग न्यूज के मामले में भी उंगलियां दगा दे जाती हैं। हालांकि,गलती फौरन सुधार ली जाती हैं लेकिन, इस मामले में ऐसा नहीं था। दरअसल, यहां मामला अंग्रेजी भाषी बालिका के शीघ्र अर्जित हिन्दी ज्ञान से संबंधित था। उस दिन
वो बालिका टिकर पर बैठी थी। (वो विभाग जो टेलीविजन पर नीचे चलने वाली पट्टियां, फ्लैश, ब्रेकिंग न्यूज आदि चलाता है)। अचानक सलमान के ज़मानत पर रिहा होने की ख़बर आयी। उस कन्या ने ज़मानत का हिन्दी अर्थ पूछा नहीं अलबत्ता अग्रेजी में ही शब्द घुसेड़ दिया। लेकिन,देवी हिन्दी ठीक से नहीं जानती थीं-लिहाजा सलमान की बेल प्यारा बैल हो गया।

टेलीविजन चैनल में कभी हिन्दी भाषियों की अंग्रेजी में दिक्कत तो कभी अंग्रेजी भाषियों के हिन्दी में हाथ तंग से ऐसी अनूठी गलतियां हो जाती हैं। ये गलतियां ही फिर किस्से के तौर पर याद रह जाती हैं। मसलन एक दिन ख़बर आयी- Roof collapsed in Jharkhand, 5 dead. । टिकर पर इस बार दूसरी बालिका बैठी थी। इन मोहतरमा ने ट्रासलेशन में लिखा- "झारखंड में छाता गिराने से पांच लोगा मारे "। बॉस ने देखा तो पसीना छूट गया। वो भागे। ऑफिस में जितने बॉस थे-सब भागे। पर टिकर बेखबर। बॉस ने देखा विशुद्द अंग्रेजी भाषी लड़की का यह कारनामा है तो ठीक से नाराज़ भी नहीं हो सके। उन्होंने कहा-"देखो ये क्या जा रहा है। सब शब्दों में मात्रा ज्यादा लगी है।" लड़की समझदार थी। फौरन आदेश का पालन किया। शब्दों से मात्राएं हटा दी गईं। अब यह वाक्य प्रसारित था-"झरखंड में छत गिरने से पांच लेग मरे"। बॉस फिर भागे। लेकिन,इस बार वो बॉस नहीं कर्मचारी बने। वाक्य ठीक किया गया।

दिलचस्प बात ये कि बॉस के जाने के बाद बालिका ने कमेंट किया- व्हाट नाउंसेंस, वी आर ट्राईंग टू लर्न हिन्दी बट......।

-PIYUSH

रविवार, 25 मार्च 2007

दो पल का ताव बनाम भंड हुई कहानी

ये किस्सा भी बेहद दिलचस्प है। लेकिन, इस किस्से का रोमांच, भय और पछतावे का अहसास किसी को उतना नहीं हो सकता-जितना मुझे हुआ था।

दरअसल, वाक्या करीब 10 साल पुराना है। मैं और मेरे पिताजी रात 1 बजे इटावा के बस स्टैंड पर उतरे। हमें जाना औरेया था। इटावा से औरेया 60 किलोमीटर दूर है और उन दिनों बस से करीब डेढ़ से दो घंटे लगा करते थे। इटावा-औरेया उसी इलाके का नाम है,जहां के माननीय मुलायम सिंह जी भी हैं और कभी फूलन देवी,मलखान सिंह और निर्भय गूर्जर भी हुआ करते थे। इसके अलावा,कट्टे वट्टे की बात तो स्कूल जाता बच्चा भी करता है। रात के 1 बज रहे थे-लिहाजा बस स्टैंड पर सन्नाटा पसरा हुआ था। हम लोग चौराहे पर खड़े होकर आगामी रणनीति के बारे में सोच ही रहे थे कि पाप्पे जी का एक ट्रक हमारे सामने आ खड़ा हुआ। "कहां जाना है तुस्सी" ड्राईवर ने हमसे पूछा। हमने कहा-औरेया और झट से ट्रक में सवार हो लिए। ड्राईवर ने कहा 50 रुपये लगेंगे। हमने कहा-पैसे की चिंता मत करो, बस चले चलो। ट्रक ने जैसे ही स्पीड पकड़ी-हमने सोचा-"वाह किस्मत हो तो ऐसी"

लेकिन,10 किलोमीटर चले की ड्राईवर के पेट के चूहे उससे दिनभर का हिसाब किताब मांगने लगे शायद। भाईसाहब ने फौरन एक ढाबे पर ट्रक खड़ा किया,उतरकर अंगडाई ली और कहा-"जनाब, खाना-वाना खा लो, रात के वक्त कहां खाना मिलेगा फिर"

ड्राईवर और क्लीनर ने करीब एक घंटे में खाना खाया और फिर ट्रक पर अपनी शानदार मौजूदगी दर्ज करायी। वैसे, रात के सन्नाटे में एक पल ख्याल आया कि अगर ट्रक चलाना आता होता तो इस ड्राईवर को पूरे एक हफ्ते का खाना यहीं खिलवा देते-लेकिन यह महज ख्याल था।

ट्रक फिर चला तो हमने ड्राईवर से कहा-"भाई, तुमने जितने पैसे कहे,हम उतने देने को तैयार हैं-लेकिन अब गाडी मत रोकना।" ड्राईवर ने भी सौ टके का प्रॉमिस किया। लेकिन,गाड़ी 10 किलोमीटर और चली होगी कि ड्राईवर ने अचानक फिर ब्रेक लगा डाले। अचानक देखा, सड़क पर दो किसान कुछ बोरे मंडी तक ले जाने के लिए खड़े थे। ड्राईवर ने कहा, गाड़ी खाली है, कुछ कमाई हो जाएगी और यह कहते हुए किसानों से मोलभाव के लिए उतर गया। करीब पंद्रह मिनट बाद लौटा और बिना कुछ कहे चल दिया। अचानक एक किलोमीटर आगे फिर क्लीनर से बोला- "यार, माल लाद ही लेते हैं-कुछ तो पैसा मिल जाएगा "

उसका यह कहना था-हमारे पिताजी का माथा ठनक गया। उऩ्होंने पहले चार छह कायदे की गालियां सुनायी और आव-देखा न ताव उतर लिए। मैंने समझाने की कोशिश की-"यहां कहां उतर रहे हैं, कुछ आगे उतर जाएंगे"। लेकिन, उनका माथा सनक चुका था-लिहाजा एक मिनट बाद हम उतर लिए। ट्रक फिर पीछे चला गया।

रात के करीब ढाई बज रहे थे। पूरे इलाके में अँधकार था। सांय सांय-कांय कांय हो रही थी। जेब में तीन-चार हजार रुपये भी थे। जिन लोगों ने इटावा-औरेया के चरित्र के बारे में सुना है-उन्हें इस दृश्य की भयावहता का अंदाज़ हो सकता है। हमारी फ......ई पड़ी थी-लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। हम दोनों एक दूसरे का हाथ थामे थे और दूर तक कोई नज़र नहीं आ रहा था। इसी तरह,चलते चलते करीब एक किलोमीटर का रास्ता हमने तय किया। तभी दूर से चमकती दो बत्तियों में हमे उम्मीद की नयी किरण नज़र आई। उत्तर प्रदेश अचानक अमिताभ का उत्तम प्रदेश लगने लगा। उत्तर प्रदेश में दम है क्योंकि जुर्म यहां हम है वाला कसीदा तब गढ़ा नहीं गया था-लेकिन मेरे मन की दूरदर्शी आँखों को वो सच लगने लगा ( आखिर काली स्याह रात में एक घंटे तक हमें किसी ने लूटा नहीं?)। बहरहाल, वो दो बत्तियां एक ट्रक की थीं। हमने हाथ दिया तो ट्रक रुक गया। हमने सोचा कि काम हो गया-लेकिन ये क्या? ये तो वहीं ट्रक था-जिसके ड्राईवर की हमने ऐसी की तैसी कर दी थी। अब धौंस दिखाने की बारी ड्राईवर की थी। बोला- "साहब, कुछ भी हो जाए, आपको नहीं ले जाऊंगा।" हमने कहां, यार पुरानी बात भूलों-जरुरत के वक्त ही इँसान इंसान के काम आता है। लेकिन, वो टस से मस नहीं। हमने ज्यादा किराए का लालच दिया, पर बात फिर भी नहीं बनी। ट्रक चल दिया। हम खड़े रहे। पागल से। क्या करते ? लेकिन, ट्रक वाले ने फिर पलटी खायी। वो कुछ दूर चला और फिर बैक गियर में लौट आया। बोला- आओ बैठो।

इसके बाद तो उसने पूरे आधे घंटे तक हमें अपनी इस परोपकारिता के अहसान के बोझ तले दाबे रखा। लेकिन,इस कहानी ने एक सबक दे दिया- आप चाहे जो हों, रात-बिरात फंसे हो तो ताव नहीं दिखाना चाहिए।

-पीयूष

सोमवार, 19 मार्च 2007

मिंटू दो उर्फ मुहब्बत का दुश्मन

पहला मिंटू अपना दोस्त नहीं था। बेचारा-हमारे दोस्त का दोस्त का है-लेकिन एक मिंटू हमारा भी दोस्त है। वैसे, सभी दूसरे मिंटूओं से क्षमायाचना करते हुए अति विनम्रता से मैं ये कहना चाहूंगा कि इस नाम में कुछ गड़बड़झाला तो है। मित्रों, हमारे एक दोस्त मिंटू का किस्सा भी इस बात की तस्दीक कर देता है। बात-करीब 17 साल पुरानी है-लेकिन लगती अभी जैसी ही है। ये किस्सा लिखने से पहले ही पूरा वाक्या मेरी आंखों के सामने घूम रहा है।

बात उन दिनों की है,जब हम हाईस्कूल में हुआ करते थे। वैसे,उम्र करीब 15 साल हुआ करती थी-लेकिन खुद को बड़ा समझने का भम्र हमें भी था। इन्हीं दिनों मुहल्ले से गुजरने वाली एक बेहद खूबसूरत लड़की हमें भी 'खूबसूरत' लग गई। मतलब ये कि वो लड़की रोज़ाना हमारी गली से गुज़रा करती थी-लेकिन हमने कभी उसे इस तरह नहीं देखा-जैसे एक दिन अचानक देख लिया। पहले आकर्षण की कोपलें फूटने के इस एतिहासिक पल में हमारा साथी था-मिंटू। अपने मित्र-मिंटू से हमने भी भावुकता में कह डाला-' यार ये लड़की बहुत खूबसूरत है, इससे दोस्ती होनी चाहिए'

लेकिन, हमें क्या मालूम था-मित्र मिंटू भविष्य की मुहब्बत की मां-बहन एक कर मिट्टी में मिला देगा ( मां-बहन का इस्तेमाल महज अनुप्रास को सार्थक बनाने की कोशिश के तहत किया गया है)। दरअसल,हुआ कुछ यूं कि उस लड़की का एक चचेरा मामा मिंटू के घर के पास बने एक हॉस्टल में रहा करता था। उसका मिंटू के घर के पास से गुजरना होता था-लिहाजा थोड़ी बहुत दुआ-सलाम भी थी। यह किस्सा उत्तर प्रदेश के एक कस्बे का है,जहां लड़का-लड़की की दोस्ती जैसी कोई चीज़ उन दिनों तो कम से कम नहीं हुआ करती थी। लेकिन, दोस्त मिंटू ने तो जैसे हमारी दोस्ती कराने की कसम उठा ली थी। तो जनाब उऩ्होंने क्या किया ? मिंटू ने लड़की के मामा को अपने पास बुलाया और कहा-' यार, मेरा एक दोस्त है पीयूष। वो तुम्हारी भांजी से बहुत प्यार करता है। बहुत अच्छा लड़का है। कुछ कराओ'। मामा ने ठोंका नहीं-ये गनीमत रही लेकिन शाम ढलते ढलते तीनों के परिवार वालों को इस अद्भुत प्रेम कहानी के अंजाम तक पहुंचने से पहले ही भनक लग गई। उसके बाद तो वही हुआ-जो होता है यानि पिटाई की नौबत। मिंटू बेवकूफ ने हमारी प्रेम कहानी का गला घोंट दिया। फिर सफाई ये दी- 'साला,उसका मामा तो कह रहा था कि काम करवा देगा, बड़ा झूठा निकला बदमाश'।
-पीयूष

शनिवार, 10 मार्च 2007

[हास्य] मिंटू आ......

किस्सा हमारे एक दूर के दोस्त का है (कृपया निकट दोस्त कतई न माने, वरना हमारे चरित्र को लेकर संकट खड़ा हो सकता है)

दोस्त का नाम है-मिंटू। आगरा में एक जगह है-सेब का बाज़ार। इस बाज़ार से गुजर चुके लोग जानते हैं कि ये पुराना बाज़ार वास्तव में रेड लाइट एरिया है। ऊपर कोठे-नीचे बाज़ार।

हमारे मित्र मिंटू को एक बार रेड लाइट एरिया में जाकर तफरी करने की इच्छा हुई। मन अकुलाया तो जनाब ने मन की बात अपने एक सखा से कही। सखा-खाया पीया आदमी था। स्कूल-कॉलेज में टीचरों ने भले कभी न पहचाना हो-रेड लाइट एरिया की सुंदरियां भाई को नाम से जानती थीं। इन जनाब ने मिंटू की व्यथा सुनी तो फौरन दर्द दूर करने का बीड़ा उठा लिया।

दो दिन बाद जनाब मिंटू को लेकर सेब का बाज़ार जा पहुंचे। पता-ठिकाना पहले से तय था-लिहाजा भाई मिंटू के साथ सीधे तय सुंदरी के कोठे पर जा पहुंचे। खेले-खाए भाई साहब तो बिना वक्त गंवाए सीढियां चढ़कर कोठे तक जा पहुंचे-लेकिन नीचे खड़े मिंटू की फूंक सरक गई। मिंटू ने अपने बाप से बिना पूछे बाग का फूल तक तो तोड़ा नहीं था-कोठे का फूल कैसे सूंघता ? मिंटू डर के मारे सहम गया। पसीना आ गया। लेकिन,भाई साहब ने ऊपर से चिल्लाया-मिंटू ऊपर आ। मिंटू पसीने में तर्र हो गया तो फिर आवाज़ आई-मिंटू ऊपर आ। इसके बाद- भाई फिर चिल्लाया-मिंटू ऊपर आता है या मैं नीचे आकर पकड़ ले जाऊं। भाई के नीचे आने की बात सुनकर मिंटू को ऐसा करंट लगा कि उसने बिना वक्त गंवाए अपना स्कूटर उठाया और रफूचक्कर हो गया।

लेकिन, किस्सा यहां खत्म नहीं होता। किस्सा यहां से शुरु होता है। किस्मत को अजीब खेल मिंटू के साथ ही खेलना था। इस हादसे को मिंटू भूला भी नहीं था कि अचानक दो दिन बाद मिंटू को अपने पिता के साथ सेब के बाज़ार से गुजरना पड़ा। स्कूटर के पीछे बैठे मिंटू का दिल धक धक करने लगा। लेकिन,यह क्या? मिंटू के पिता ने स्कूटर रोक दिया। लेकिन, किस्मत का खेल देखिए-स्कूटर उस पान की दुकान पर रोका-जो उसी कोठे के सामने था-जहां दो दिन पहले मिंटू के साथ एक हादसा होते होते बचा था।

मिंटू आंख छुपाए वहां खड़ा ही था कि एक आवाज़ ने मिंटू के पैरों से ज़मीन सरका थी। आवाज़ आई-मिंटू ऊपर आ.....। फिर आवाज़ गूंजी-मिंटू ऊपर आ। ऊपर देखा तो एक छैल-छबीली सुंदरी ने मिंटू को आंख मारते हुए कहा-मिंटू ऊपर आता है या मैं नीचे आऊं।

ये सुनकर मिंटू कुछ सोचता या करता-इससे पहले ही मिंटू के बाप ने अपनी चप्पल उतारी और मिंटू की धुनाई शुरु कर दी। लोगों ने बचाने की कोशिश करी तो मिंटू के बाप ने कहा- इस नालायक को साली ये लौंडिया तक पहचानती हैं। फिर क्या था-मिंटू पर इतनी चप्पलें बरसीं कि आज भी कोई अगर "मिंटू आ " कहता है तो वो सिहर उठता है।

अब-यह किस्सा वास्तव में मिंटू के दुर्भाग्य की कहानी है - लेकिन शायद एक सीख भी कि अगर हिम्मत न हो तो गलत काम करने की बात तो दूर-उसकी राह में एक कदम बढ़ाना भी आफ़त मोल लेना है।

-पीयूष