मंगलवार, 10 अप्रैल 2007

एक गुगली, सात आउट

मेरे दिल के किसी कोने में बैठा एक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देखकर दुनिया बड़ा होने से डरता है
-राजेश रेड्डी

बड़ो की दुनिया वास्तव में कुछ ऐसी ही है। ज़िंदगी की तमाम दुश्वारियां
इंसान को एक चक्रव्यूह में घेरे रहती हैं। ऐसे में, बचपन की कुछ शरारतें
याद आती हैं - तो चेहरे पर अनायास मुस्कुराहट तैर जाती है।

बचपन के इन्हीं दिनों का एक किस्सा मुझे याद आ गया। ये बात है 1989-90
की। उन दिनों मैं क्लास आठ में हुआ करता था। औरेया के जिस तथाकथित
"कॉन्वेंट" स्कूल में हम पढ़ा करते थे-वहां वास्तव में हम खेलने जाया
करते थे। आलम ये कि स्कूल में बैग के साथ हेलमेट, विकेट, पैड समेत
क्रिकेट का सारा सामान भी हम दोस्त टांग कर ले जाया करते थे। इसके बाद,
इंटरवल तक पढ़ाई - फिर खिलाई। यानी आधी पाली सिर्फ खेला करते थे। क्रिकेट
का जुनून था उन दिनों। मज़ेदार बात ये कि हमारी क्लास में महज आठ बच्चे
हुआ करते थे। इनमें से एक मेरा पड़ोसी और बेहद खास दोस्त शामिल था।
छात्रों में एक बालिका थी। आठ खिलाड़ियों में क्रिकेट क्या खाक
खेलते-लिहाजा क्लास सात के छात्रों की भी छुट्टी करा ली जाती थी।

हमारे स्कूल की प्रीसिंपल साहिबा हमारे घर के पास रहती थीं और बहुत अच्छी
थी। इंटरवल के बाद खेलने-कूदने की इजाजत देने में कोई आनाकानी नहीं करती
थीं। उनकी इजाजत ने हमें आधी पाली में खेल की ऐसी लत लगा दी कि छुट्टी न
मिलने पर हम सातों छात्र स्कूल से भाग जाते। पता नहीं, इस बात की कभी
घरवालों से शिकायत क्यों नहीं की गई या स्कूल में अगले दिन पीटा क्यों
नहीं गया ( शायद, इतने ब्रिलिएंट बच्चों को उनकी दूरदर्शी नज़रों ने उसी
वक्त पहचान लिया था ! ), पर इजाजत न मिलने पर अक्सर ऐसा होता था।
उन दिनों स्कूल के सामने एक रेशम फॉर्म था। स्कूल से भागकर हम लोग सीधे
रेशम फॉर्म में घुस जाते और दो-तीन घंटे तक शहतूत खाते थे।

उन दिनों औरेया बहुत छोटा सा कस्बा था। अब ज़िला हो गया है। हमारा जूनियर
हाई स्कूल घर से काफी दूर था, लेकिन बाईक से दूरी 10 मिनट से ज्यादा नहीं
थी। इसी दौरान, एक दिन अचानक दोपहर में पिताश्री को क्या सूझा कि वो
वीसीआर खरीद लाए। वीसीआर पर फिल्म देखना खासा रॉयल था, सो पिताजी ने इस
सम्मान में अपने बड़े बेटे को भी भागीदार बनाना चाहा और मेरे छोटे भाई के
साथ स्कूल टपक गए।

लेकिन, हम स्कूल में होते तो उन्हें मिलते। उन्हें पहली बार पता चला कि
उनका बड़ा बेटा इतना लायक हो गया है कि अपने पैरों पर स्कूल से भागने लगा
है (वहां अपहरण का बड़ा खतरा रहता था)। उन्होंने वहां टीचरों से जो
कहा,सो कहा, पर हम दोनों( मैं और दोस्त) के बैग लेकर चलता हो लिए।
काले-मीठे शहतूत खाकर मन भरा तो हम भी स्कूल पहुंचे। पता चला "अंकल जी तो
बैग ले गए"। अब, डर के मारे हाथ-पैर फूल गए। ऐसा लगा कि मानो बापू ने एक ही गुगली में सातों खिलाड़ियों को क्लीन बोल्ड कर डाला हो। नौबत गश खाकर वहीं गिरने की आ गई।
आंखों के सामने बेंत से पिटाई का दृश्य घूमने लगा( हालांकि कभी
ऐसे पीटा नहीं गया)। लगा कि आज भागने के अपने हुनर का इस्तेमाल घर छोड़कर
भागने के लिए कर लिया जाए। कहां जाए, क्या करें, किससे कहें ? दो घंटे
सैकड़ों विकल्पों पर विचार करने के बाद लगा कि अपनी औकात अभी घर लौट कर
जाने के अलावा किसी और चीज़ की नहीं है। घर पहुंचे। वहां प्रिसिपल साहिबा
समेत घर-पड़ोसियों की पंचायत चल रही थी।

बहरहाल, पिटाई नहीं हुई, हड़काई बहुत हुई। मां ने हड़काई लगाई। पिताजी ने
बिना कुछ कहे महज़ घूर कर साफ कर दिया कि स्कूल से भागने का खेल खत्म हो
गया है। पेपर नज़दीक हैं-पढ़ाई करो।

आज, 17-18 साल बाद न जाने क्यों रेशम फॉर्म के उन शहतूत के पेड़ों की याद
फिर आ रही है।

-पीयूष

2 टिप्‍पणियां:

Arun Arora ने कहा…

पियूश जी हम भी दिबियापुर/फ़फ़ूद के पढे है २७ साल पहले पर वहा तो उसर का राज था हमे तो आपसे जलन हॊ रही है कि हम शहतूत क्यो नही ढूढ पाये अब कभी मौका मिला तो जरा से हमे भी भिजवा दीजीयेगा

Sagar Chand Nahar ने कहा…

भईया कभी हम भी इसी तरह इमली खाने के लिये भागते थे, आप भाग्यशाली थे कि हड़काने में हि निबट गये, हम उतने किस्मत वाले नहीं थे शायद :( अच्छी खासी पिटाई हुई थी।
छट्ठीं कक्षा में सबसे कम उपस्थिती का रिकॉर्ड बनाया और उस ओपिटाई के बाद सबसे ज्यादा उपस्थिती का चार साल तक इनाम पाया।

अच्छा लगा संस्मरण पढ़ कर।
www.nahar.wordpress.com