गुरुवार, 29 मार्च 2007

टिड्डे की भैंस ही बड़ी थी

धुरंधर नकलची दूसरे के लिखने के अंदाज से समझ लेते हैं कि अगला क्या लिख मार रहा है। हमारा एक मित्र टिड्डे भी खुद को इसी अव्वल कोटि का नकलची मानता था। नाम की महिमा पर फिर कभी चर्चा करुंगा-फिलहाल गुण की चर्चा कर ली जाए। तो जनाब, टिड्डे भाई उच्चकोटि के नकलची होने के बावजूद हाईस्कूल में दो बार फेल हो चुके थे।

ये किस्सा शायद 1991 का है। उन दिनों उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार बनी। माननीय मुख्यमंत्री लंफटूश किस्म के छात्रों पर अति मेहरबान हुए-लिहाजा उन्होंने स्वकेंद्र परीक्षा प्रणाली लागू कर दी।

इसी दौर में टिड्डे जनाब भी पुन: हाईस्कूल के इम्तिहान में झंडा गाढ़ने के उद्देश्य से बैठे। इस बार उन्होंने दोस्तों से कसम उठवा ली कि नकल कराने में कोई कोताही नहीं बरती जाए। आखिर,गोल्डन चांस बार बार तो नहीं आता? मुहल्ले के दोस्तों ने भी सारा काम धाम छोड़कर हर इम्तिहान के दिन टिड्डे को नकल कराने का बीडा उठा लिया।

तो साहब, हाईस्कूल के इम्तिहान शुरु हुए। टिड्डे के दोस्तों (यानि मुझे मिलाकर) ने कभी स्कूल की छत फांदकर तो कभी टॉयलेट में बुलवाकर पूरी नकल पहुंचायी। चीटिंग के लिए जरुरी तमाम खर्रे मुहैया कराए। पर्च के हर सवाल का जवाब गाइड में किस नंबर के पेज पर है-ये बाकायदा बताया गया ताकि कोई लफड़ा न रहे।

टिड्डे ने भी इम्तिहान में धुआंधार कॉपियां भरीं। परीक्षाएं खत्म हुईं। झमाझम। रिजल्ट से पहले पार्टियों का दौर चल निकला। उन दिनों टिड्डे खुद अपनी चप्पलों की दुकान पर बैठने लगा था-लिहाजा जेब में दूसरे दोस्तों से
ज्यादा रकम हुआ करती थी।

लेकिन, नतीजा आया तो टिड्डे भाई का डिब्बा फिर गुल...। आखिर क्या हुआ? क्या यूपी बोर्ड पर मुकदमा ठोंक दें? सारे सवालों के जवाब किताब से मिलाकर हुबहू दिए गए गए हैं। जब जवाब में अपनी अक्ल लड़ाई ही नहीं गई (मना किया गया था) तो एक्साज़मनर फेल कैसे कर सकता है। भई,नंबर भले कम दे डाले पर फेल का तो कोई मतलब ही नहीं।

इस विषय पर आगे की रणनीति बनाने के लिए दोस्तों की एक बैठक हुई तो एक विद्वाव मित्र ने अनमोल सुझाव दिया। उसने कहा-टिड्डे से एक पेपर फिर हल करने को कहा जाए। मुमकिन है कि उसकी राइटिंग इतनी घसीटामार हो कि एक्साजमनर तो क्या उसका बाप भी न पढ़ पाया हो और उसने कहानी भंड कर दी हो।

वैसे, ज्यादातर दोस्तों को ये सुझाव नागवार गुजरा था-लेकिन फिर भी टिड्डे से पर्चा हल करने के लिए कह दिया गया। थमा दिया बॉयोलॉजी का पर्चा। टिड्डे ने करीब दो घंटे तक पूरी शिद्दत से पर्चा दिया। फिर, शान से बाहर
आकर बोला-लो हो गया।

लेकिन, टिड्डे की आंसरशीट देखकर सबने अपना माथा पकड़ लिया। क्यों? भईयां। टिड्डे साहब ने जवाबों के बीच ही लिख मारा "कृपया अगला पृष्ठ देखें"। इसी तरह,बीच में कई जगह लिखा गया-"चित्र संख्या 14.5, 14.6 आदि के अनुसार"। जनाब ने आनन फानन मे एक जगह गाइड का नाम भी लिख मारा। यानि कुल मिलाकर जैसा कहा कहा वैसा किया यानि अक्ल से काम नहीं लिया।

टिड्ड़े साहब तीसरी बार फेल होने के बाद आज भी अपनी दुकान पर बैठे हैं। वैसे, इस दिलचस्प किस्से को वो खुद भी खूब सुनाते हैं। हां, गौर करने वाली बात ये कि हाईस्कूल फेल होने से उनकी दुकानदारी पर कोई असर नहीं पड़ा। टिड्डे की चप्पलों की दुकान आज काफी बढ़ी हो चुकी है।

-पीयूष

3 टिप्‍पणियां:

Sagar Chand Nahar ने कहा…

मजेदार लेख :)

आप भी पाठको को अपनी तरफ कींचने के गुर सीख ही गये यानी धमाकेदार शीर्षक.....:)

nahar.wordpress.com

Sagar Chand Nahar ने कहा…

उपर टिप्पणी में कींचने की बजाय खींचने पढ़ें।

ePandit ने कहा…

बहुत खूब, टिड्डे भाई को ब्लॉगिया बना दीजिए खूब रंग जमेगा। :)