रविवार, 25 मार्च 2007

दो पल का ताव बनाम भंड हुई कहानी

ये किस्सा भी बेहद दिलचस्प है। लेकिन, इस किस्से का रोमांच, भय और पछतावे का अहसास किसी को उतना नहीं हो सकता-जितना मुझे हुआ था।

दरअसल, वाक्या करीब 10 साल पुराना है। मैं और मेरे पिताजी रात 1 बजे इटावा के बस स्टैंड पर उतरे। हमें जाना औरेया था। इटावा से औरेया 60 किलोमीटर दूर है और उन दिनों बस से करीब डेढ़ से दो घंटे लगा करते थे। इटावा-औरेया उसी इलाके का नाम है,जहां के माननीय मुलायम सिंह जी भी हैं और कभी फूलन देवी,मलखान सिंह और निर्भय गूर्जर भी हुआ करते थे। इसके अलावा,कट्टे वट्टे की बात तो स्कूल जाता बच्चा भी करता है। रात के 1 बज रहे थे-लिहाजा बस स्टैंड पर सन्नाटा पसरा हुआ था। हम लोग चौराहे पर खड़े होकर आगामी रणनीति के बारे में सोच ही रहे थे कि पाप्पे जी का एक ट्रक हमारे सामने आ खड़ा हुआ। "कहां जाना है तुस्सी" ड्राईवर ने हमसे पूछा। हमने कहा-औरेया और झट से ट्रक में सवार हो लिए। ड्राईवर ने कहा 50 रुपये लगेंगे। हमने कहा-पैसे की चिंता मत करो, बस चले चलो। ट्रक ने जैसे ही स्पीड पकड़ी-हमने सोचा-"वाह किस्मत हो तो ऐसी"

लेकिन,10 किलोमीटर चले की ड्राईवर के पेट के चूहे उससे दिनभर का हिसाब किताब मांगने लगे शायद। भाईसाहब ने फौरन एक ढाबे पर ट्रक खड़ा किया,उतरकर अंगडाई ली और कहा-"जनाब, खाना-वाना खा लो, रात के वक्त कहां खाना मिलेगा फिर"

ड्राईवर और क्लीनर ने करीब एक घंटे में खाना खाया और फिर ट्रक पर अपनी शानदार मौजूदगी दर्ज करायी। वैसे, रात के सन्नाटे में एक पल ख्याल आया कि अगर ट्रक चलाना आता होता तो इस ड्राईवर को पूरे एक हफ्ते का खाना यहीं खिलवा देते-लेकिन यह महज ख्याल था।

ट्रक फिर चला तो हमने ड्राईवर से कहा-"भाई, तुमने जितने पैसे कहे,हम उतने देने को तैयार हैं-लेकिन अब गाडी मत रोकना।" ड्राईवर ने भी सौ टके का प्रॉमिस किया। लेकिन,गाड़ी 10 किलोमीटर और चली होगी कि ड्राईवर ने अचानक फिर ब्रेक लगा डाले। अचानक देखा, सड़क पर दो किसान कुछ बोरे मंडी तक ले जाने के लिए खड़े थे। ड्राईवर ने कहा, गाड़ी खाली है, कुछ कमाई हो जाएगी और यह कहते हुए किसानों से मोलभाव के लिए उतर गया। करीब पंद्रह मिनट बाद लौटा और बिना कुछ कहे चल दिया। अचानक एक किलोमीटर आगे फिर क्लीनर से बोला- "यार, माल लाद ही लेते हैं-कुछ तो पैसा मिल जाएगा "

उसका यह कहना था-हमारे पिताजी का माथा ठनक गया। उऩ्होंने पहले चार छह कायदे की गालियां सुनायी और आव-देखा न ताव उतर लिए। मैंने समझाने की कोशिश की-"यहां कहां उतर रहे हैं, कुछ आगे उतर जाएंगे"। लेकिन, उनका माथा सनक चुका था-लिहाजा एक मिनट बाद हम उतर लिए। ट्रक फिर पीछे चला गया।

रात के करीब ढाई बज रहे थे। पूरे इलाके में अँधकार था। सांय सांय-कांय कांय हो रही थी। जेब में तीन-चार हजार रुपये भी थे। जिन लोगों ने इटावा-औरेया के चरित्र के बारे में सुना है-उन्हें इस दृश्य की भयावहता का अंदाज़ हो सकता है। हमारी फ......ई पड़ी थी-लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। हम दोनों एक दूसरे का हाथ थामे थे और दूर तक कोई नज़र नहीं आ रहा था। इसी तरह,चलते चलते करीब एक किलोमीटर का रास्ता हमने तय किया। तभी दूर से चमकती दो बत्तियों में हमे उम्मीद की नयी किरण नज़र आई। उत्तर प्रदेश अचानक अमिताभ का उत्तम प्रदेश लगने लगा। उत्तर प्रदेश में दम है क्योंकि जुर्म यहां हम है वाला कसीदा तब गढ़ा नहीं गया था-लेकिन मेरे मन की दूरदर्शी आँखों को वो सच लगने लगा ( आखिर काली स्याह रात में एक घंटे तक हमें किसी ने लूटा नहीं?)। बहरहाल, वो दो बत्तियां एक ट्रक की थीं। हमने हाथ दिया तो ट्रक रुक गया। हमने सोचा कि काम हो गया-लेकिन ये क्या? ये तो वहीं ट्रक था-जिसके ड्राईवर की हमने ऐसी की तैसी कर दी थी। अब धौंस दिखाने की बारी ड्राईवर की थी। बोला- "साहब, कुछ भी हो जाए, आपको नहीं ले जाऊंगा।" हमने कहां, यार पुरानी बात भूलों-जरुरत के वक्त ही इँसान इंसान के काम आता है। लेकिन, वो टस से मस नहीं। हमने ज्यादा किराए का लालच दिया, पर बात फिर भी नहीं बनी। ट्रक चल दिया। हम खड़े रहे। पागल से। क्या करते ? लेकिन, ट्रक वाले ने फिर पलटी खायी। वो कुछ दूर चला और फिर बैक गियर में लौट आया। बोला- आओ बैठो।

इसके बाद तो उसने पूरे आधे घंटे तक हमें अपनी इस परोपकारिता के अहसान के बोझ तले दाबे रखा। लेकिन,इस कहानी ने एक सबक दे दिया- आप चाहे जो हों, रात-बिरात फंसे हो तो ताव नहीं दिखाना चाहिए।

-पीयूष

1 टिप्पणी:

Manish Kumar ने कहा…

मजेदार विवरण रहा आपका !