शुक्रवार, 6 अप्रैल 2007

काश! मैं तब वोट डाल पाता

"मैं और वो आमने-सामने थे। पिटने की आशंका भर से मेरे तोते उड़ गए।
लेकिन,वो मुस्कुराया और फिर मुझे टकटकी लगाकर देखने लगा.....।"

ये ट्रेलर है-एक छोटे से किस्से का। ट्रेलर इसलिए क्योंकि आप पूरी फिल्म
देखें। बहरहाल, अब आप फिल्म देखें या न देखें-हमें तो थिएटर वाले
हैं-पूरी फिल्म चलाएंगे।

दिल्ली में एमसीडी चुनाव के मौके पर ये किस्सा याद आ गया। किस्सा कुछ यूं है कि खासी भीड़ में वोटिंग और फर्जी वोटिंग के साहस के मज़े के हमनें किस्से सुनें तो मन हुआ कि क्यों न वोट डाला जाए।

ए कहिन वोट डालें, बी कहिन वोट डालें, फत्ते कहिन वोट डालें तो हमऊं कहिन
चलो वोट डालें। लेकिन, हमारी उम्र तो थी महज 14-15 साल। लेकिन,ये चुनाव
साला हर पांच साल में ही आता है। अब क्या करें ? वोटिंग के दिन हमने देखा
कि मुहल्ले के कुछ यार-दोस्त फर्जी वोट डाल चुके हैं और अब दूसरे की
तैयारी कर रहे हैं। हमने भी एक फर्जी पर्ची कटायी और वोट डालने के लिए
मुहल्ले के सामने इंटर कॉलेज में बने मतदान केंद्र की लाइन में लग गए।
ये बात शायद 1991-92 का है। जैसे-जैसे कतार आगे बढ़ रही थी-हमारा दिल
बल्लियों उछलने लगा। दरअसल, यह अनुभव शायद कुछ ऐसा ही था-मानो
दादा-परदादा शादी से पहले सेक्स न करने का फ़रमान सुना चुके हैं और साहब
जादे अपने बूते गुलछर्रे उड़ा आए। बहरहाल, वोट डालने के लिए हम बिलकुल उस
कमरे में पहुंच गए-जहां वोट डाला जाना था। लेकिन, जैसे ही मैंने अपनी
पर्ची देकर बैलट पेपर लेना चाहा, काउंटर पर खड़े एक पोलिंग एजेंट ने देख
लिया। उसने मेरा "मासूम चेहरा" देखा, "नन्हीं उमरिया" और हाथ में पर्ची
देखी।

अब "मैं और वो आमने-सामने थे। पिटने की आशंका भर से मेरे तोते उड़ गए।
लेकिन,वो मुस्कुराया और फिर मुझे टकटकी लगाकर देखने लगा.....।"
दो पल देखने के बाद वो पोलिंग एजेंट मुस्कुरा कर बोला-" बेटा, घर
जाओ-अगले चुनाव में वोट डालना।"

मेरा सुंदर सपना टूट गया। अरमान बिखर गए। कुछ दोस्तों ने हंसी उड़ायी, पर
मैं करता तो क्या ?

हां, मैंने पांच साल बाद वोट डाला। अब उम्र 18 साल हो चुकी थी। एक
जिम्मेदारी निभाने को थोड़ा संतोष भले हो-लेकिन फर्जी वोट डालने सरीखी
उमंग नहीं थी।

-पीयूष

1 टिप्पणी:

संजय बेंगाणी ने कहा…

उम्र का फायदा मिला और बच गए. वरना तो... :)