शनिवार, 31 मार्च 2007

कोई तो मरी कुतिया ढूंढ लाओ

लोग टूट जाते हैं, एक घर बनाने में
वो तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
- बशीर बद्र

आज अचानक होम लोन महँगा होने की ख़बर देखी तो बशीर बद्र का यह शेर याद आ गया। हालाँकि, सीधे-सीधे इस शेर का ख़बर से कोई लेना-देना नहीं है - लेकिन ध्यान आया कि घर बनाना कितना मुश्किल है।

अपने घर की याद आयी तो घर में काफ़ी दिनों से आयी सीलन की समस्या भी याद आ गई। बाथरूम में ज़बरदस्त सीलन है - लेकिन सोसाइटी के प्रेसिडेंट, वाइस प्रेसिडेंट आदि आदि को कोई चिंता ही नहीं (कई बार शिकायत करने के बावजूद)। बहरहाल, ये बोरिंग क़िस्सा मेरे घर और उसकी समस्याओं का नहीं बल्कि इस समस्या से याद आए एक दूसरे क़िस्से का है।

ये किस्सा है नॉर्वे का। नॉर्वे बहुत छोटा देश है, जहाँ महज़ कुछ लाख की आबादी है। भाई लोग सब खाते-पीते हैं और आसपास कोई पाकिस्तान-बांग्लादेश या चीन जैसा देश नहीं है कि हर वक़्त सीने पर मूंग दलता रहे। उसी नॉर्वे में हमारे एक परिचित संजीव रहते हैं। उनका कुछ लिखने-पढ़ने का धंधा है। जनाब काफ़ी साल से नॉर्वे में रह रहे थे तो वहाँ की एक राजनीतिक पार्टी ने उन्हें चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दे डाला। वैसे, वहाँ ज़्यादा भारतीय नहीं हैं लेकिन क़रीब तीस-चालीस हज़ार भारतीय और कुछ हज़ार पाकिस्तानी हैं। इन्हें लुभाने के लिए ही संजीव को टिकट देने का मन बनाया गया।

संजीव के मुताबिक़ - उन्हें टिकट के सिलसिले में वहाँ प्रधानमंत्री के घर बुलाया गया। भाई साहब पहुँचे तो दनादन घर के भीतर घुसे चले गए। कहीं कोई पूछताछ नहीं - कोई लिखा पढ़त नहीं। संजीव परेशान - क्या हुआ? थोड़ी देर में एक सज्जन ने उन्हें बैठने को कहा तो संजीव बैठ गए। पता चला चंद मिनट बाद खुद प्रधानमंत्री दोनों के लिए चाय बनाते हुए संजीव के पास पहुँच गए। क्या भारत में कभी इस दृश्य की कल्पना की जा सकती है?

संजीव जीत गए तो रोज़ाना अपने क्षेत्र में होने वाली बैठको में भी जाना पड़ा। मज़े की बात ये कि नॉर्वे में कोई समस्या ही नहीं। इस बैठक में लोग चाय की चुस्कियाँ लेते और एक दूसरे से पूछते कि कहीं कोई समस्या हो तो बताएँ - चल कर उसे हल किया जाए।

बहरहाल, हद तो तब हो गई - जब एक महीने से ज़्यादा वक़्त तक कोई समस्या नहीं मिली। अचानक एक बैठक में एक लोकल नेता साहब इसी बात पर उखड़ गए कि कहीं कोई समस्या ही नहीं है तो हम यहाँ क्या झक़ मार रहे हैं। उन्होंने अचानक तैश में कहा - "अरे कोई तो कहीं मरी हुई कुतिया ढूंढ लाओ या कहीं किसी खंभे पर टूटा बल्ब दिखाओ"।

साफ़ है - नॉर्वे में ज़िन्दगी अपने ढर्रे पर चली जा रही हैं। कहीं कोई समस्या कोई सामाजिक परेशानी नहीं। पर इस क़िस्से के बाद मुझे लगा कि क्या कोई भारतीय बिना समस्या के कहीं रह सकता है, ज़िन्दगी का पूरा मज़ा ले सकता है?

शुक्रवार, 30 मार्च 2007

बटई की ब्लू फ़िल्म

दोनों एक दूसरे के सामने थे। अवाक्। क्या करें, कहाँ जाएँ? अब क्या होगा।
क्या सोचेगा वो?

ये पहेली नहीं एक किस्सा है। किस्सा है - हमारे मुहल्ले के राजेश उर्फ़ बटई का। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है बटई का नाम लटई पर रखा गया था। बचपन में बटई के पतंगबाज़ी के शौक़ के चक्कर में उसका नाम लटई पड़ा। शायद, पतंगाबज़ी में इस्तेमाल होने वाली किसी चीज़ का नाम लटई हुआ करता था।

लेकिन, किस्सा पतंगबाज़ी का नहीं- ब्लू फ़िल्म बाज़ी का है। जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही बटई ने भी ब्लू फिल्म देखने का शौक फरमाना शुरु किया। उन दिनों औरेया में महज़ तीन थिएटर हुआ करते थे। इनमें जब कभी कोई एडल्ट फ़िल्म लगती - तो शहर के ज़्यादातर नौजवान मौका ताड़कर फिल्म निपटा देते थे।

वैसे, दर्शक एडल्ट फिल्म से ज़्यादा उन निहायत अश्लील दृश्यों को देखने थिएटर पहुँचते थे, जो थिएटर वाला बीच में घुसेड़ देता था। उस ऐतिहासिक वक़्त में कृष्णा थिएटर में एक एडल्ट फिल्म लगी। नाम याद नहीं। बटई फिल्म देखने पहुँचा। रात का शो था। फ़िल्म के शो के बीच में हर आठ-दस मिनट पर कुछ मारु दृश्य आता तो बटई "वाह-वाह " करता। इसी दौरान, जनाब एक-आध बार पास बैठे दूसरे दर्शक के पैर पर भी हाथ मार कर कहता - "वाह, गुरु मजा आ गया"। बटई से एक सीट छोड़कर पास बैठे सज्जन भी इसी तरह कुछ फ़िल्म के मज़े ले रहे थे। हालांकि, वो कमेंट नहीं कर रहे थे लेकिन हँसने की आवाज़ में उनकी खिलखिलाती हँसी भी शामिल होती थी।

कई धाँसू सीन आए। कई बार वाह-वाह हुई। फिर इंटरवल हुआ। दर्शकों ने कहा कि एक बार फिर ब्लू फिल्म जोड़ दे तो मज़ा आ जाए। लेकिन, इसी बीच बटई जनाब थम्सअप खरीदने स्टॉल पर पहुंचे तो....?
दोनों एक दूसरे के सामने थे। अवाक्। क्या करें, कहां जाएं? अब क्या होगा। क्या सोचेगा वो?
दरअसल, बटई के सामने उसके पिताजी खड़े थे। रात का शो था - दोनों थिएटर के भीतर बने स्टॉल पर थे - लिहाज़ा बहाना बनाना बेकार था। दिन के वक़्त बटई के बापू ने उसे थिएटर में देखा होता तो उस पर जूते बजना तय था। मौक़ा था कहने का "साले, दुकान छोड़कर यहाँ फिल्म देखने चला आया। वो भी इत्ती गंदी।"

लेकिन, अब मामला उल्टा था। बटई के बापू भी फँस चुके थे। कहना-सुनना बेकार था। बटई ने कहा - "रातउ में चैन नहीं है तुम्हें। उते अम्मा इंतजार कर रही होएँ और तुम इते फिल्म देखन चले आए हो"।
बटई ने इतना कहा और थिएटर से बाहर निकल आया। लेकिन, बापू ने पूरी फिल्म देखी। वो पैसे की कद्र जानते थे!

-पीयूष

गुरुवार, 29 मार्च 2007

टिड्डे की भैंस ही बड़ी थी

धुरंधर नकलची दूसरे के लिखने के अंदाज से समझ लेते हैं कि अगला क्या लिख मार रहा है। हमारा एक मित्र टिड्डे भी खुद को इसी अव्वल कोटि का नकलची मानता था। नाम की महिमा पर फिर कभी चर्चा करुंगा-फिलहाल गुण की चर्चा कर ली जाए। तो जनाब, टिड्डे भाई उच्चकोटि के नकलची होने के बावजूद हाईस्कूल में दो बार फेल हो चुके थे।

ये किस्सा शायद 1991 का है। उन दिनों उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार बनी। माननीय मुख्यमंत्री लंफटूश किस्म के छात्रों पर अति मेहरबान हुए-लिहाजा उन्होंने स्वकेंद्र परीक्षा प्रणाली लागू कर दी।

इसी दौर में टिड्डे जनाब भी पुन: हाईस्कूल के इम्तिहान में झंडा गाढ़ने के उद्देश्य से बैठे। इस बार उन्होंने दोस्तों से कसम उठवा ली कि नकल कराने में कोई कोताही नहीं बरती जाए। आखिर,गोल्डन चांस बार बार तो नहीं आता? मुहल्ले के दोस्तों ने भी सारा काम धाम छोड़कर हर इम्तिहान के दिन टिड्डे को नकल कराने का बीडा उठा लिया।

तो साहब, हाईस्कूल के इम्तिहान शुरु हुए। टिड्डे के दोस्तों (यानि मुझे मिलाकर) ने कभी स्कूल की छत फांदकर तो कभी टॉयलेट में बुलवाकर पूरी नकल पहुंचायी। चीटिंग के लिए जरुरी तमाम खर्रे मुहैया कराए। पर्च के हर सवाल का जवाब गाइड में किस नंबर के पेज पर है-ये बाकायदा बताया गया ताकि कोई लफड़ा न रहे।

टिड्डे ने भी इम्तिहान में धुआंधार कॉपियां भरीं। परीक्षाएं खत्म हुईं। झमाझम। रिजल्ट से पहले पार्टियों का दौर चल निकला। उन दिनों टिड्डे खुद अपनी चप्पलों की दुकान पर बैठने लगा था-लिहाजा जेब में दूसरे दोस्तों से
ज्यादा रकम हुआ करती थी।

लेकिन, नतीजा आया तो टिड्डे भाई का डिब्बा फिर गुल...। आखिर क्या हुआ? क्या यूपी बोर्ड पर मुकदमा ठोंक दें? सारे सवालों के जवाब किताब से मिलाकर हुबहू दिए गए गए हैं। जब जवाब में अपनी अक्ल लड़ाई ही नहीं गई (मना किया गया था) तो एक्साज़मनर फेल कैसे कर सकता है। भई,नंबर भले कम दे डाले पर फेल का तो कोई मतलब ही नहीं।

इस विषय पर आगे की रणनीति बनाने के लिए दोस्तों की एक बैठक हुई तो एक विद्वाव मित्र ने अनमोल सुझाव दिया। उसने कहा-टिड्डे से एक पेपर फिर हल करने को कहा जाए। मुमकिन है कि उसकी राइटिंग इतनी घसीटामार हो कि एक्साजमनर तो क्या उसका बाप भी न पढ़ पाया हो और उसने कहानी भंड कर दी हो।

वैसे, ज्यादातर दोस्तों को ये सुझाव नागवार गुजरा था-लेकिन फिर भी टिड्डे से पर्चा हल करने के लिए कह दिया गया। थमा दिया बॉयोलॉजी का पर्चा। टिड्डे ने करीब दो घंटे तक पूरी शिद्दत से पर्चा दिया। फिर, शान से बाहर
आकर बोला-लो हो गया।

लेकिन, टिड्डे की आंसरशीट देखकर सबने अपना माथा पकड़ लिया। क्यों? भईयां। टिड्डे साहब ने जवाबों के बीच ही लिख मारा "कृपया अगला पृष्ठ देखें"। इसी तरह,बीच में कई जगह लिखा गया-"चित्र संख्या 14.5, 14.6 आदि के अनुसार"। जनाब ने आनन फानन मे एक जगह गाइड का नाम भी लिख मारा। यानि कुल मिलाकर जैसा कहा कहा वैसा किया यानि अक्ल से काम नहीं लिया।

टिड्ड़े साहब तीसरी बार फेल होने के बाद आज भी अपनी दुकान पर बैठे हैं। वैसे, इस दिलचस्प किस्से को वो खुद भी खूब सुनाते हैं। हां, गौर करने वाली बात ये कि हाईस्कूल फेल होने से उनकी दुकानदारी पर कोई असर नहीं पड़ा। टिड्डे की चप्पलों की दुकान आज काफी बढ़ी हो चुकी है।

-पीयूष

मंगलवार, 27 मार्च 2007

बैल पर सलमान

सोचिए...कितना अद्भुत दृश्य हो-अगर हष्ट पुष्ट सल्लू मियां जेल से बैल पर बैठकर बाहर निकलें। काला बैल-गोरे सलमान। वाह..बहुत खूब। वैसे, यह दृश्य सिर्फ कल्पना की उपज है-लेकिन एक राष्ट्रीय चैनल पर यह समाचार दिखायी पड़ा-"सलमान बैल पर रिहा"। ये फ्लैश कई बार टेलीविजन पर प्रगट होता रहा।

ज्यादातर टेलीविजन चैनलों में तेज़ी से ख़बर प्रसारित करने का इतना दबाव होता है कि कई बार बेकिंग न्यूज के मामले में भी उंगलियां दगा दे जाती हैं। हालांकि,गलती फौरन सुधार ली जाती हैं लेकिन, इस मामले में ऐसा नहीं था। दरअसल, यहां मामला अंग्रेजी भाषी बालिका के शीघ्र अर्जित हिन्दी ज्ञान से संबंधित था। उस दिन
वो बालिका टिकर पर बैठी थी। (वो विभाग जो टेलीविजन पर नीचे चलने वाली पट्टियां, फ्लैश, ब्रेकिंग न्यूज आदि चलाता है)। अचानक सलमान के ज़मानत पर रिहा होने की ख़बर आयी। उस कन्या ने ज़मानत का हिन्दी अर्थ पूछा नहीं अलबत्ता अग्रेजी में ही शब्द घुसेड़ दिया। लेकिन,देवी हिन्दी ठीक से नहीं जानती थीं-लिहाजा सलमान की बेल प्यारा बैल हो गया।

टेलीविजन चैनल में कभी हिन्दी भाषियों की अंग्रेजी में दिक्कत तो कभी अंग्रेजी भाषियों के हिन्दी में हाथ तंग से ऐसी अनूठी गलतियां हो जाती हैं। ये गलतियां ही फिर किस्से के तौर पर याद रह जाती हैं। मसलन एक दिन ख़बर आयी- Roof collapsed in Jharkhand, 5 dead. । टिकर पर इस बार दूसरी बालिका बैठी थी। इन मोहतरमा ने ट्रासलेशन में लिखा- "झारखंड में छाता गिराने से पांच लोगा मारे "। बॉस ने देखा तो पसीना छूट गया। वो भागे। ऑफिस में जितने बॉस थे-सब भागे। पर टिकर बेखबर। बॉस ने देखा विशुद्द अंग्रेजी भाषी लड़की का यह कारनामा है तो ठीक से नाराज़ भी नहीं हो सके। उन्होंने कहा-"देखो ये क्या जा रहा है। सब शब्दों में मात्रा ज्यादा लगी है।" लड़की समझदार थी। फौरन आदेश का पालन किया। शब्दों से मात्राएं हटा दी गईं। अब यह वाक्य प्रसारित था-"झरखंड में छत गिरने से पांच लेग मरे"। बॉस फिर भागे। लेकिन,इस बार वो बॉस नहीं कर्मचारी बने। वाक्य ठीक किया गया।

दिलचस्प बात ये कि बॉस के जाने के बाद बालिका ने कमेंट किया- व्हाट नाउंसेंस, वी आर ट्राईंग टू लर्न हिन्दी बट......।

-PIYUSH

रविवार, 25 मार्च 2007

दो पल का ताव बनाम भंड हुई कहानी

ये किस्सा भी बेहद दिलचस्प है। लेकिन, इस किस्से का रोमांच, भय और पछतावे का अहसास किसी को उतना नहीं हो सकता-जितना मुझे हुआ था।

दरअसल, वाक्या करीब 10 साल पुराना है। मैं और मेरे पिताजी रात 1 बजे इटावा के बस स्टैंड पर उतरे। हमें जाना औरेया था। इटावा से औरेया 60 किलोमीटर दूर है और उन दिनों बस से करीब डेढ़ से दो घंटे लगा करते थे। इटावा-औरेया उसी इलाके का नाम है,जहां के माननीय मुलायम सिंह जी भी हैं और कभी फूलन देवी,मलखान सिंह और निर्भय गूर्जर भी हुआ करते थे। इसके अलावा,कट्टे वट्टे की बात तो स्कूल जाता बच्चा भी करता है। रात के 1 बज रहे थे-लिहाजा बस स्टैंड पर सन्नाटा पसरा हुआ था। हम लोग चौराहे पर खड़े होकर आगामी रणनीति के बारे में सोच ही रहे थे कि पाप्पे जी का एक ट्रक हमारे सामने आ खड़ा हुआ। "कहां जाना है तुस्सी" ड्राईवर ने हमसे पूछा। हमने कहा-औरेया और झट से ट्रक में सवार हो लिए। ड्राईवर ने कहा 50 रुपये लगेंगे। हमने कहा-पैसे की चिंता मत करो, बस चले चलो। ट्रक ने जैसे ही स्पीड पकड़ी-हमने सोचा-"वाह किस्मत हो तो ऐसी"

लेकिन,10 किलोमीटर चले की ड्राईवर के पेट के चूहे उससे दिनभर का हिसाब किताब मांगने लगे शायद। भाईसाहब ने फौरन एक ढाबे पर ट्रक खड़ा किया,उतरकर अंगडाई ली और कहा-"जनाब, खाना-वाना खा लो, रात के वक्त कहां खाना मिलेगा फिर"

ड्राईवर और क्लीनर ने करीब एक घंटे में खाना खाया और फिर ट्रक पर अपनी शानदार मौजूदगी दर्ज करायी। वैसे, रात के सन्नाटे में एक पल ख्याल आया कि अगर ट्रक चलाना आता होता तो इस ड्राईवर को पूरे एक हफ्ते का खाना यहीं खिलवा देते-लेकिन यह महज ख्याल था।

ट्रक फिर चला तो हमने ड्राईवर से कहा-"भाई, तुमने जितने पैसे कहे,हम उतने देने को तैयार हैं-लेकिन अब गाडी मत रोकना।" ड्राईवर ने भी सौ टके का प्रॉमिस किया। लेकिन,गाड़ी 10 किलोमीटर और चली होगी कि ड्राईवर ने अचानक फिर ब्रेक लगा डाले। अचानक देखा, सड़क पर दो किसान कुछ बोरे मंडी तक ले जाने के लिए खड़े थे। ड्राईवर ने कहा, गाड़ी खाली है, कुछ कमाई हो जाएगी और यह कहते हुए किसानों से मोलभाव के लिए उतर गया। करीब पंद्रह मिनट बाद लौटा और बिना कुछ कहे चल दिया। अचानक एक किलोमीटर आगे फिर क्लीनर से बोला- "यार, माल लाद ही लेते हैं-कुछ तो पैसा मिल जाएगा "

उसका यह कहना था-हमारे पिताजी का माथा ठनक गया। उऩ्होंने पहले चार छह कायदे की गालियां सुनायी और आव-देखा न ताव उतर लिए। मैंने समझाने की कोशिश की-"यहां कहां उतर रहे हैं, कुछ आगे उतर जाएंगे"। लेकिन, उनका माथा सनक चुका था-लिहाजा एक मिनट बाद हम उतर लिए। ट्रक फिर पीछे चला गया।

रात के करीब ढाई बज रहे थे। पूरे इलाके में अँधकार था। सांय सांय-कांय कांय हो रही थी। जेब में तीन-चार हजार रुपये भी थे। जिन लोगों ने इटावा-औरेया के चरित्र के बारे में सुना है-उन्हें इस दृश्य की भयावहता का अंदाज़ हो सकता है। हमारी फ......ई पड़ी थी-लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। हम दोनों एक दूसरे का हाथ थामे थे और दूर तक कोई नज़र नहीं आ रहा था। इसी तरह,चलते चलते करीब एक किलोमीटर का रास्ता हमने तय किया। तभी दूर से चमकती दो बत्तियों में हमे उम्मीद की नयी किरण नज़र आई। उत्तर प्रदेश अचानक अमिताभ का उत्तम प्रदेश लगने लगा। उत्तर प्रदेश में दम है क्योंकि जुर्म यहां हम है वाला कसीदा तब गढ़ा नहीं गया था-लेकिन मेरे मन की दूरदर्शी आँखों को वो सच लगने लगा ( आखिर काली स्याह रात में एक घंटे तक हमें किसी ने लूटा नहीं?)। बहरहाल, वो दो बत्तियां एक ट्रक की थीं। हमने हाथ दिया तो ट्रक रुक गया। हमने सोचा कि काम हो गया-लेकिन ये क्या? ये तो वहीं ट्रक था-जिसके ड्राईवर की हमने ऐसी की तैसी कर दी थी। अब धौंस दिखाने की बारी ड्राईवर की थी। बोला- "साहब, कुछ भी हो जाए, आपको नहीं ले जाऊंगा।" हमने कहां, यार पुरानी बात भूलों-जरुरत के वक्त ही इँसान इंसान के काम आता है। लेकिन, वो टस से मस नहीं। हमने ज्यादा किराए का लालच दिया, पर बात फिर भी नहीं बनी। ट्रक चल दिया। हम खड़े रहे। पागल से। क्या करते ? लेकिन, ट्रक वाले ने फिर पलटी खायी। वो कुछ दूर चला और फिर बैक गियर में लौट आया। बोला- आओ बैठो।

इसके बाद तो उसने पूरे आधे घंटे तक हमें अपनी इस परोपकारिता के अहसान के बोझ तले दाबे रखा। लेकिन,इस कहानी ने एक सबक दे दिया- आप चाहे जो हों, रात-बिरात फंसे हो तो ताव नहीं दिखाना चाहिए।

-पीयूष

सोमवार, 19 मार्च 2007

मिंटू दो उर्फ मुहब्बत का दुश्मन

पहला मिंटू अपना दोस्त नहीं था। बेचारा-हमारे दोस्त का दोस्त का है-लेकिन एक मिंटू हमारा भी दोस्त है। वैसे, सभी दूसरे मिंटूओं से क्षमायाचना करते हुए अति विनम्रता से मैं ये कहना चाहूंगा कि इस नाम में कुछ गड़बड़झाला तो है। मित्रों, हमारे एक दोस्त मिंटू का किस्सा भी इस बात की तस्दीक कर देता है। बात-करीब 17 साल पुरानी है-लेकिन लगती अभी जैसी ही है। ये किस्सा लिखने से पहले ही पूरा वाक्या मेरी आंखों के सामने घूम रहा है।

बात उन दिनों की है,जब हम हाईस्कूल में हुआ करते थे। वैसे,उम्र करीब 15 साल हुआ करती थी-लेकिन खुद को बड़ा समझने का भम्र हमें भी था। इन्हीं दिनों मुहल्ले से गुजरने वाली एक बेहद खूबसूरत लड़की हमें भी 'खूबसूरत' लग गई। मतलब ये कि वो लड़की रोज़ाना हमारी गली से गुज़रा करती थी-लेकिन हमने कभी उसे इस तरह नहीं देखा-जैसे एक दिन अचानक देख लिया। पहले आकर्षण की कोपलें फूटने के इस एतिहासिक पल में हमारा साथी था-मिंटू। अपने मित्र-मिंटू से हमने भी भावुकता में कह डाला-' यार ये लड़की बहुत खूबसूरत है, इससे दोस्ती होनी चाहिए'

लेकिन, हमें क्या मालूम था-मित्र मिंटू भविष्य की मुहब्बत की मां-बहन एक कर मिट्टी में मिला देगा ( मां-बहन का इस्तेमाल महज अनुप्रास को सार्थक बनाने की कोशिश के तहत किया गया है)। दरअसल,हुआ कुछ यूं कि उस लड़की का एक चचेरा मामा मिंटू के घर के पास बने एक हॉस्टल में रहा करता था। उसका मिंटू के घर के पास से गुजरना होता था-लिहाजा थोड़ी बहुत दुआ-सलाम भी थी। यह किस्सा उत्तर प्रदेश के एक कस्बे का है,जहां लड़का-लड़की की दोस्ती जैसी कोई चीज़ उन दिनों तो कम से कम नहीं हुआ करती थी। लेकिन, दोस्त मिंटू ने तो जैसे हमारी दोस्ती कराने की कसम उठा ली थी। तो जनाब उऩ्होंने क्या किया ? मिंटू ने लड़की के मामा को अपने पास बुलाया और कहा-' यार, मेरा एक दोस्त है पीयूष। वो तुम्हारी भांजी से बहुत प्यार करता है। बहुत अच्छा लड़का है। कुछ कराओ'। मामा ने ठोंका नहीं-ये गनीमत रही लेकिन शाम ढलते ढलते तीनों के परिवार वालों को इस अद्भुत प्रेम कहानी के अंजाम तक पहुंचने से पहले ही भनक लग गई। उसके बाद तो वही हुआ-जो होता है यानि पिटाई की नौबत। मिंटू बेवकूफ ने हमारी प्रेम कहानी का गला घोंट दिया। फिर सफाई ये दी- 'साला,उसका मामा तो कह रहा था कि काम करवा देगा, बड़ा झूठा निकला बदमाश'।
-पीयूष

शनिवार, 10 मार्च 2007

[हास्य] मिंटू आ......

किस्सा हमारे एक दूर के दोस्त का है (कृपया निकट दोस्त कतई न माने, वरना हमारे चरित्र को लेकर संकट खड़ा हो सकता है)

दोस्त का नाम है-मिंटू। आगरा में एक जगह है-सेब का बाज़ार। इस बाज़ार से गुजर चुके लोग जानते हैं कि ये पुराना बाज़ार वास्तव में रेड लाइट एरिया है। ऊपर कोठे-नीचे बाज़ार।

हमारे मित्र मिंटू को एक बार रेड लाइट एरिया में जाकर तफरी करने की इच्छा हुई। मन अकुलाया तो जनाब ने मन की बात अपने एक सखा से कही। सखा-खाया पीया आदमी था। स्कूल-कॉलेज में टीचरों ने भले कभी न पहचाना हो-रेड लाइट एरिया की सुंदरियां भाई को नाम से जानती थीं। इन जनाब ने मिंटू की व्यथा सुनी तो फौरन दर्द दूर करने का बीड़ा उठा लिया।

दो दिन बाद जनाब मिंटू को लेकर सेब का बाज़ार जा पहुंचे। पता-ठिकाना पहले से तय था-लिहाजा भाई मिंटू के साथ सीधे तय सुंदरी के कोठे पर जा पहुंचे। खेले-खाए भाई साहब तो बिना वक्त गंवाए सीढियां चढ़कर कोठे तक जा पहुंचे-लेकिन नीचे खड़े मिंटू की फूंक सरक गई। मिंटू ने अपने बाप से बिना पूछे बाग का फूल तक तो तोड़ा नहीं था-कोठे का फूल कैसे सूंघता ? मिंटू डर के मारे सहम गया। पसीना आ गया। लेकिन,भाई साहब ने ऊपर से चिल्लाया-मिंटू ऊपर आ। मिंटू पसीने में तर्र हो गया तो फिर आवाज़ आई-मिंटू ऊपर आ। इसके बाद- भाई फिर चिल्लाया-मिंटू ऊपर आता है या मैं नीचे आकर पकड़ ले जाऊं। भाई के नीचे आने की बात सुनकर मिंटू को ऐसा करंट लगा कि उसने बिना वक्त गंवाए अपना स्कूटर उठाया और रफूचक्कर हो गया।

लेकिन, किस्सा यहां खत्म नहीं होता। किस्सा यहां से शुरु होता है। किस्मत को अजीब खेल मिंटू के साथ ही खेलना था। इस हादसे को मिंटू भूला भी नहीं था कि अचानक दो दिन बाद मिंटू को अपने पिता के साथ सेब के बाज़ार से गुजरना पड़ा। स्कूटर के पीछे बैठे मिंटू का दिल धक धक करने लगा। लेकिन,यह क्या? मिंटू के पिता ने स्कूटर रोक दिया। लेकिन, किस्मत का खेल देखिए-स्कूटर उस पान की दुकान पर रोका-जो उसी कोठे के सामने था-जहां दो दिन पहले मिंटू के साथ एक हादसा होते होते बचा था।

मिंटू आंख छुपाए वहां खड़ा ही था कि एक आवाज़ ने मिंटू के पैरों से ज़मीन सरका थी। आवाज़ आई-मिंटू ऊपर आ.....। फिर आवाज़ गूंजी-मिंटू ऊपर आ। ऊपर देखा तो एक छैल-छबीली सुंदरी ने मिंटू को आंख मारते हुए कहा-मिंटू ऊपर आता है या मैं नीचे आऊं।

ये सुनकर मिंटू कुछ सोचता या करता-इससे पहले ही मिंटू के बाप ने अपनी चप्पल उतारी और मिंटू की धुनाई शुरु कर दी। लोगों ने बचाने की कोशिश करी तो मिंटू के बाप ने कहा- इस नालायक को साली ये लौंडिया तक पहचानती हैं। फिर क्या था-मिंटू पर इतनी चप्पलें बरसीं कि आज भी कोई अगर "मिंटू आ " कहता है तो वो सिहर उठता है।

अब-यह किस्सा वास्तव में मिंटू के दुर्भाग्य की कहानी है - लेकिन शायद एक सीख भी कि अगर हिम्मत न हो तो गलत काम करने की बात तो दूर-उसकी राह में एक कदम बढ़ाना भी आफ़त मोल लेना है।

-पीयूष