आपकी कार में अगर भूत बैठ जाए तो क्या होगा? इस वक्त आप क्या करेंगे ?
जनाब होना क्या है। आपकी सिट्टी पिट्टी गुम हो जाएगी। इस वक्त आपको क्या करना है, जो करना है वो तो भूत को करना है।
भईया, दो दिन पहले मेरे साथ तो कुछ ऐसा ही हुआ। दरअसल, कार ड्राइव करते हुए हम अपने दफ़्तर जा रहे थे। जैसा हमेशा होता है कि जब आपको कहीं जल्दी पहुंचना होता है, आप लेट होते हैं, वैसा ही मेरे साथ हुआ। हुआ यूं कि अचानक कार के स्टीरियो ने रंग दिखाना शुरु कर दिया। गाना अपने आप बजता, फिर बंद हो जाता। लगभग चार मिनट के इस ड्रामे के बाद अपन इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि स्टीरियो का तार कुछ गड़बड़ हो गया है। लेकिन, ये क्या? इस निष्कर्ष पर पहुंचते ही हमारी कार का पावर स्टीयरिंग एकदम ट्रक के स्टीयरिंग सरीखा भारी हो गया। भारी ट्रैफिक के बीच ट्रक ( भारी कार) चलाने का अनुभव लिया ही था कि एकदम मोड़ पर इंडीगेटर दगा दे गया। कुछ देर पहले तक अच्छे-खासे जल रहे इंडीगेटर ने काम करना बंद कर दिया।
इन हरकतों के बीच वास्तव में एक पल को मुझे लगा कि कार में कोई भूत-वूत तो नहीं आ गया है? अपन ने गाड़ी रोकी तो कार का दरवाजा भी कुछ पंगा करने लगा। बहरहाल, कार से निकलकर जांच ( अल्प ज्ञान के बूते) की तो कुछ समझ नहीं आया-लेकिन दोबारा कार स्टार्ट करने की कोशिश की तो वो स्टार्ट नहीं हुई। अब खड़े रहो घोंचू से...।
बहरहाल,मारुति हेल्प लाइन पर फोन करने के बाद मैकेनिक आया-उसने गाड़ी शुरु की और हम अपने दफ्तर पहुंचे। इस बीच, इन भूतहा हरकतों का राज़ फाश हुआ। वो यह कि कार की बैटरी के प्राण पखेरु होने को है....।
लिजिए लग गया चूना ढाई-तीन हज़ार रुपये का.....।
-पीयूष
रविवार, 29 अप्रैल 2007
शुक्रवार, 27 अप्रैल 2007
"मुझे गुप्त रोग हुआ है"
"मुझे गुप्त रोग हुआ है"- दरअसल, ये स्टेटमेंट ही 1000 वोल्ट के करंट वाला है। लेकिन, साहब घबराने की बात नहीं-ये महज़ एक किस्सा है। किस्सा ऐसा-जिसने हमें भी कभी जोरदार करंट लगाया था।
बात कई साल पुरानी है। हम अपने परिवार समेत घर में बैठे गप्पबाजी कर रहे थे कि एक कज़िन की तबियत कुछ नासाज़ दिखायी दी। वो बालक उस वक्त करीब छह-सात साल का रहा होगा। हमने उससे पूछा कि- तबियत को क्या हुआ? उसने सीधे सीधे जवाब दे डाला-"मुझे गुप्त रोग हुआ है।"
उसके इस बयान को सुनकर वहां बैठे तमाम लोगों को एक पल के लिए मानों सांप सूंघ गया। सात-आठ साल का बच्चा यह क्या कह रहा है। लेकिन,जब इस गुप्त रोग का खुलासा हुआ-तो सभी ने पेट पकड़कर हंसना शुरु कर दिया। दरअसल,बालक के कहने का मतलब यह था कि उसकी तबियत किस वजह से नासाज़ है-यह उसे भी नहीं पता अलबत्ता तबियत कुछ गड़बड़ जरुर है। बस, इस गुप्त टाइप की बीमारी को उसने गुप्त रोग कह डाला। वैसे, इस शब्द "गुप्त रोग" के बारे में बालक ने तीन दिन पहले ही कानपुर से दिल्ली आते वक्त ट्रेन में बैठे बैठे दीवारों पर पढ़ा था।
विज्ञापनों की भाषा हमेशा से बच्चों के दिल पर असर डालती रही है। इस बात की तस्दीक यह किस्सा भी करता है और इससे पहले वाला किस्सा भी,जिसमें मैंने बताया था कि कैसे मेरे बालक ने कार्टून की भाषा का इस्तेमाल करते हुए हमें सरेबाजार लुच्चा साबित कर डाला था।
-पीयूष
बात कई साल पुरानी है। हम अपने परिवार समेत घर में बैठे गप्पबाजी कर रहे थे कि एक कज़िन की तबियत कुछ नासाज़ दिखायी दी। वो बालक उस वक्त करीब छह-सात साल का रहा होगा। हमने उससे पूछा कि- तबियत को क्या हुआ? उसने सीधे सीधे जवाब दे डाला-"मुझे गुप्त रोग हुआ है।"
उसके इस बयान को सुनकर वहां बैठे तमाम लोगों को एक पल के लिए मानों सांप सूंघ गया। सात-आठ साल का बच्चा यह क्या कह रहा है। लेकिन,जब इस गुप्त रोग का खुलासा हुआ-तो सभी ने पेट पकड़कर हंसना शुरु कर दिया। दरअसल,बालक के कहने का मतलब यह था कि उसकी तबियत किस वजह से नासाज़ है-यह उसे भी नहीं पता अलबत्ता तबियत कुछ गड़बड़ जरुर है। बस, इस गुप्त टाइप की बीमारी को उसने गुप्त रोग कह डाला। वैसे, इस शब्द "गुप्त रोग" के बारे में बालक ने तीन दिन पहले ही कानपुर से दिल्ली आते वक्त ट्रेन में बैठे बैठे दीवारों पर पढ़ा था।
विज्ञापनों की भाषा हमेशा से बच्चों के दिल पर असर डालती रही है। इस बात की तस्दीक यह किस्सा भी करता है और इससे पहले वाला किस्सा भी,जिसमें मैंने बताया था कि कैसे मेरे बालक ने कार्टून की भाषा का इस्तेमाल करते हुए हमें सरेबाजार लुच्चा साबित कर डाला था।
-पीयूष
मंगलवार, 24 अप्रैल 2007
वो बच्चा अपन लुच्चा
बच्चों की जुबां बदल गई है। बच्चे भले ही अभी भी मन के सच्चे हो, लेकिन कभी कभी हरकत ऐसी कर डालते हैं कि आप दीन-दुनिया के सामने लुच्चे साबित हो जाते हैं।
चंद रोज़ पहले की बात है। हम अपने साहबजादे को लेकर अपना स्टेटस बढ़ाने (खरीदने की औकात नहीं,पर एक दो पॉलिथीन टांग लो ताकि लगे कुछ खरीदा है) मॉल घूमने पहुंचे। साहबजादे अभी अभी तीन साल के हुए हैं और उनकी जुबां में तुतलाना बचा हुआ है। बहरहाल, मॉल में उनका इंटरेस्ट घूमना नहीं बल्कि झूले झूलना, बैटरी वाली कार चलाना वगैरह मे होता है। शनिवार के दिन दो बार पांच पांच मिनट कार में चक्कर लगाने के बाद जब जनाब के उतरने की बारी आयी तो साहब रोने लगे। हमने कहा-भइया, 100 रुपये ढीले हो गए हैं, अब आओ कुछ आइसक्रीम-वाइसक्रीम खाकर घर चलते हैं। लेकिन, जनाब टस से मस नहीं। हमारे बाप ने हमें कभी नहीं मारा तो इस परंपरा पर अपन भी टिके हुए हैं। लेकिन जनाब हमने थोड़ी आंखें क्या तरेरी ग़ज़ब हो गया।
भाई साहब ने पचासों लोगों की मौजूदगी में हमारे सामने हाथ जोड़ लिए और कहने लगा-"पापा, मुझे माफ कर दो, पापा मुझे माफ कर दो।" ये ऐतिहासिक दृश्य देखकर अपना खून सूख गया।
हाईप्रोफाइल लोग अपन जैसे टुच्चे आदमी की तरफ घूरे जा रहे थे-लेकिन बालक की शताब्दी स्पीड वाली जुबां से लगातार निकले जा रहा था-"पापा मुझे माफ कर दो "। कभी बच्चे को मारा नहीं और न इस बार ऐसी कोई गुंजाइश थी-फिर ऐसा क्यों ?
बहरहाल, ज़ालिम ज़माने के सामने बच्चे को बहलाया-फुसलाया और फौरन कार में दो चक्कर और लगवाए।
लेकिन, इस हरकत के पीछे का सच कुछ दिन पहले पता चला,जब हम बालक के साथ टीवी पर कार्टून देख रहे थे। इस दौरान, हमें बहुत से वो शब्द सुनायी दिए-जो हमारा बालक अब बड़बड़ाने लगा है। इसी में एक कार्टून करेक्टर बोला भी- "मुझे माफ कर दो- मुझे माफ कर दो"।
अपने समझ में आ गया था कि कार्टून ने बच्चों की भाषा बदल दी है।
वैसे,परसो बालक हमारे साथ खेलते हुए अचानक चिल्लाया- "कोई मेरी हेल्प करेगा"। इस बार हमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि वास्तव में,कार्टून फिल्मों ने बच्चों की जुबां बदल डाली है।
-पीयूष
चंद रोज़ पहले की बात है। हम अपने साहबजादे को लेकर अपना स्टेटस बढ़ाने (खरीदने की औकात नहीं,पर एक दो पॉलिथीन टांग लो ताकि लगे कुछ खरीदा है) मॉल घूमने पहुंचे। साहबजादे अभी अभी तीन साल के हुए हैं और उनकी जुबां में तुतलाना बचा हुआ है। बहरहाल, मॉल में उनका इंटरेस्ट घूमना नहीं बल्कि झूले झूलना, बैटरी वाली कार चलाना वगैरह मे होता है। शनिवार के दिन दो बार पांच पांच मिनट कार में चक्कर लगाने के बाद जब जनाब के उतरने की बारी आयी तो साहब रोने लगे। हमने कहा-भइया, 100 रुपये ढीले हो गए हैं, अब आओ कुछ आइसक्रीम-वाइसक्रीम खाकर घर चलते हैं। लेकिन, जनाब टस से मस नहीं। हमारे बाप ने हमें कभी नहीं मारा तो इस परंपरा पर अपन भी टिके हुए हैं। लेकिन जनाब हमने थोड़ी आंखें क्या तरेरी ग़ज़ब हो गया।
भाई साहब ने पचासों लोगों की मौजूदगी में हमारे सामने हाथ जोड़ लिए और कहने लगा-"पापा, मुझे माफ कर दो, पापा मुझे माफ कर दो।" ये ऐतिहासिक दृश्य देखकर अपना खून सूख गया।
हाईप्रोफाइल लोग अपन जैसे टुच्चे आदमी की तरफ घूरे जा रहे थे-लेकिन बालक की शताब्दी स्पीड वाली जुबां से लगातार निकले जा रहा था-"पापा मुझे माफ कर दो "। कभी बच्चे को मारा नहीं और न इस बार ऐसी कोई गुंजाइश थी-फिर ऐसा क्यों ?
बहरहाल, ज़ालिम ज़माने के सामने बच्चे को बहलाया-फुसलाया और फौरन कार में दो चक्कर और लगवाए।
लेकिन, इस हरकत के पीछे का सच कुछ दिन पहले पता चला,जब हम बालक के साथ टीवी पर कार्टून देख रहे थे। इस दौरान, हमें बहुत से वो शब्द सुनायी दिए-जो हमारा बालक अब बड़बड़ाने लगा है। इसी में एक कार्टून करेक्टर बोला भी- "मुझे माफ कर दो- मुझे माफ कर दो"।
अपने समझ में आ गया था कि कार्टून ने बच्चों की भाषा बदल दी है।
वैसे,परसो बालक हमारे साथ खेलते हुए अचानक चिल्लाया- "कोई मेरी हेल्प करेगा"। इस बार हमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि वास्तव में,कार्टून फिल्मों ने बच्चों की जुबां बदल डाली है।
-पीयूष
सोमवार, 16 अप्रैल 2007
या अल्लाह, मज़ाक में मिट गई मुहब्बत
आप हंसते हैं-मुस्कुराते हैं, हमेशा हल्की फुल्की बातें करते हैं ताकि लोगों को खुश रख सकें तो यह भी ठीक नहीं। आप विदूषक नहीं है,आप बेहतरीन स्टूडेंट भी हैं लेकिन आपकी बातें लोगों को गुदगुदाती हैं तो ये भी ठीक नहीं।
भईया, ये मूल्यवान अनुभव में हमनें अपनी ही ज़िंदगी से सीखा है। किस्सा करीब 12 साल पुराना है। कॉलेज के दिनों में एक बालिका(A) हमें अच्छी लगने लगी। हमारी उससे गहरी दोस्ती हो गई।
क्रमश:
एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है
एक लड़की का हाल पूछना दूसरी से बेगाना बना देता है...
आगे बढ़े:
तो जनाब हुआ यों कि इस बालिका की एक खास सहेली(B) भी थी। हमारी भी वो अच्छी मित्र थी-लेकिन लगातार दो दिन वो क्लास में नहीं आयी तो हमने अपनी गहरी दोस्त से पूछ डाला-"क्या बात है...वो(B) क्यों नहीं आ रही।"
वैसे, आपकी किस्मत अगर लुढ़िस(शब्द पर गौर फरमाएं) हो तो आप ऐसी हरकत कर डालते हैं कि मुहब्बत पर पानी फिर ही जाता है। एक दिन तमाम दोस्तों के बीच B ने कहा कि उसे हक़ीकत फिल्म का एक गाना बहुत पसंद है-लेकिन वो कैसेट कहीं नहीं मिलती। अपनी किस्मत खराब थी कि अगले ही दिन एक दुकान पर हम पहुंचे कि हकीकत फिल्म की वो कैसेट हमें मिल गईं। हमने खरीदी और B को भेंट कर दी। अब,हमें क्या पता था कि इस भेंट का गलत अर्थ निकाल लिया जाएगा।
बहरहाल, कहानी के इस दौर में एक दिन अचानक A ने कहा कि उसे हमसे कोई बहुत ज़रुरी बात करनी है। हमनें सोचा कि चलो...कुछ प्यारभरी इनकी भी सुन लेते हैं।
लेकिन,A ने तो पूरी कहानी का ऐसा पलीता किया कि क्या बताएं। A ने हमसे कहा कि अगर B तुम्हें पसंद है तो तुम उससे जाकर कहो। क्योंकि,इस तरह के हिंट वहां से भी मिल रहे हैं। अब, अपन ए के चक्कर में- प्रस्ताव बी का मिला तो दिमाग चकरघिन्नी होने लगा। लेकिन,उसी वक्त हमने होश संभाला। सोच लिया कि अगर सीधी सीधी बात नहीं की तो पूरी ज़िंदगी अफ़सोर रहेगा। प्रेम के इज़हार का कोई मौका तो नहीं था लेकिन गंगा उल्टी दिशा में बह जाए-इससे पहले ही कुआँ खोद डालना था। हमनें आवाज़ भारी की और कहा "ए, मैं तुम्हें पसंद करता हूं।" लेकिन,हमें क्या पता था कि पूर्व जन्म में किए पाप मज़ाक-मज़ाक में इतने भारी पड़ेगे कि मुहब्बत ही मेंट डालेंगे। ए ने एक पल हमारे चेहरे को निहारा और फिर ज़ोर से हंसकर बोली-"मजाक मत करो पीयूष"।
भईया, ये मूल्यवान अनुभव में हमनें अपनी ही ज़िंदगी से सीखा है। किस्सा करीब 12 साल पुराना है। कॉलेज के दिनों में एक बालिका(A) हमें अच्छी लगने लगी। हमारी उससे गहरी दोस्ती हो गई।
क्रमश:
एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है
एक लड़की का हाल पूछना दूसरी से बेगाना बना देता है...
आगे बढ़े:
तो जनाब हुआ यों कि इस बालिका की एक खास सहेली(B) भी थी। हमारी भी वो अच्छी मित्र थी-लेकिन लगातार दो दिन वो क्लास में नहीं आयी तो हमने अपनी गहरी दोस्त से पूछ डाला-"क्या बात है...वो(B) क्यों नहीं आ रही।"
वैसे, आपकी किस्मत अगर लुढ़िस(शब्द पर गौर फरमाएं) हो तो आप ऐसी हरकत कर डालते हैं कि मुहब्बत पर पानी फिर ही जाता है। एक दिन तमाम दोस्तों के बीच B ने कहा कि उसे हक़ीकत फिल्म का एक गाना बहुत पसंद है-लेकिन वो कैसेट कहीं नहीं मिलती। अपनी किस्मत खराब थी कि अगले ही दिन एक दुकान पर हम पहुंचे कि हकीकत फिल्म की वो कैसेट हमें मिल गईं। हमने खरीदी और B को भेंट कर दी। अब,हमें क्या पता था कि इस भेंट का गलत अर्थ निकाल लिया जाएगा।
बहरहाल, कहानी के इस दौर में एक दिन अचानक A ने कहा कि उसे हमसे कोई बहुत ज़रुरी बात करनी है। हमनें सोचा कि चलो...कुछ प्यारभरी इनकी भी सुन लेते हैं।
लेकिन,A ने तो पूरी कहानी का ऐसा पलीता किया कि क्या बताएं। A ने हमसे कहा कि अगर B तुम्हें पसंद है तो तुम उससे जाकर कहो। क्योंकि,इस तरह के हिंट वहां से भी मिल रहे हैं। अब, अपन ए के चक्कर में- प्रस्ताव बी का मिला तो दिमाग चकरघिन्नी होने लगा। लेकिन,उसी वक्त हमने होश संभाला। सोच लिया कि अगर सीधी सीधी बात नहीं की तो पूरी ज़िंदगी अफ़सोर रहेगा। प्रेम के इज़हार का कोई मौका तो नहीं था लेकिन गंगा उल्टी दिशा में बह जाए-इससे पहले ही कुआँ खोद डालना था। हमनें आवाज़ भारी की और कहा "ए, मैं तुम्हें पसंद करता हूं।" लेकिन,हमें क्या पता था कि पूर्व जन्म में किए पाप मज़ाक-मज़ाक में इतने भारी पड़ेगे कि मुहब्बत ही मेंट डालेंगे। ए ने एक पल हमारे चेहरे को निहारा और फिर ज़ोर से हंसकर बोली-"मजाक मत करो पीयूष"।
मंगलवार, 10 अप्रैल 2007
एक गुगली, सात आउट
मेरे दिल के किसी कोने में बैठा एक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देखकर दुनिया बड़ा होने से डरता है
-राजेश रेड्डी
बड़ो की दुनिया वास्तव में कुछ ऐसी ही है। ज़िंदगी की तमाम दुश्वारियां
इंसान को एक चक्रव्यूह में घेरे रहती हैं। ऐसे में, बचपन की कुछ शरारतें
याद आती हैं - तो चेहरे पर अनायास मुस्कुराहट तैर जाती है।
बचपन के इन्हीं दिनों का एक किस्सा मुझे याद आ गया। ये बात है 1989-90
की। उन दिनों मैं क्लास आठ में हुआ करता था। औरेया के जिस तथाकथित
"कॉन्वेंट" स्कूल में हम पढ़ा करते थे-वहां वास्तव में हम खेलने जाया
करते थे। आलम ये कि स्कूल में बैग के साथ हेलमेट, विकेट, पैड समेत
क्रिकेट का सारा सामान भी हम दोस्त टांग कर ले जाया करते थे। इसके बाद,
इंटरवल तक पढ़ाई - फिर खिलाई। यानी आधी पाली सिर्फ खेला करते थे। क्रिकेट
का जुनून था उन दिनों। मज़ेदार बात ये कि हमारी क्लास में महज आठ बच्चे
हुआ करते थे। इनमें से एक मेरा पड़ोसी और बेहद खास दोस्त शामिल था।
छात्रों में एक बालिका थी। आठ खिलाड़ियों में क्रिकेट क्या खाक
खेलते-लिहाजा क्लास सात के छात्रों की भी छुट्टी करा ली जाती थी।
हमारे स्कूल की प्रीसिंपल साहिबा हमारे घर के पास रहती थीं और बहुत अच्छी
थी। इंटरवल के बाद खेलने-कूदने की इजाजत देने में कोई आनाकानी नहीं करती
थीं। उनकी इजाजत ने हमें आधी पाली में खेल की ऐसी लत लगा दी कि छुट्टी न
मिलने पर हम सातों छात्र स्कूल से भाग जाते। पता नहीं, इस बात की कभी
घरवालों से शिकायत क्यों नहीं की गई या स्कूल में अगले दिन पीटा क्यों
नहीं गया ( शायद, इतने ब्रिलिएंट बच्चों को उनकी दूरदर्शी नज़रों ने उसी
वक्त पहचान लिया था ! ), पर इजाजत न मिलने पर अक्सर ऐसा होता था।
उन दिनों स्कूल के सामने एक रेशम फॉर्म था। स्कूल से भागकर हम लोग सीधे
रेशम फॉर्म में घुस जाते और दो-तीन घंटे तक शहतूत खाते थे।
उन दिनों औरेया बहुत छोटा सा कस्बा था। अब ज़िला हो गया है। हमारा जूनियर
हाई स्कूल घर से काफी दूर था, लेकिन बाईक से दूरी 10 मिनट से ज्यादा नहीं
थी। इसी दौरान, एक दिन अचानक दोपहर में पिताश्री को क्या सूझा कि वो
वीसीआर खरीद लाए। वीसीआर पर फिल्म देखना खासा रॉयल था, सो पिताजी ने इस
सम्मान में अपने बड़े बेटे को भी भागीदार बनाना चाहा और मेरे छोटे भाई के
साथ स्कूल टपक गए।
लेकिन, हम स्कूल में होते तो उन्हें मिलते। उन्हें पहली बार पता चला कि
उनका बड़ा बेटा इतना लायक हो गया है कि अपने पैरों पर स्कूल से भागने लगा
है (वहां अपहरण का बड़ा खतरा रहता था)। उन्होंने वहां टीचरों से जो
कहा,सो कहा, पर हम दोनों( मैं और दोस्त) के बैग लेकर चलता हो लिए।
काले-मीठे शहतूत खाकर मन भरा तो हम भी स्कूल पहुंचे। पता चला "अंकल जी तो
बैग ले गए"। अब, डर के मारे हाथ-पैर फूल गए। ऐसा लगा कि मानो बापू ने एक ही गुगली में सातों खिलाड़ियों को क्लीन बोल्ड कर डाला हो। नौबत गश खाकर वहीं गिरने की आ गई।
आंखों के सामने बेंत से पिटाई का दृश्य घूमने लगा( हालांकि कभी
ऐसे पीटा नहीं गया)। लगा कि आज भागने के अपने हुनर का इस्तेमाल घर छोड़कर
भागने के लिए कर लिया जाए। कहां जाए, क्या करें, किससे कहें ? दो घंटे
सैकड़ों विकल्पों पर विचार करने के बाद लगा कि अपनी औकात अभी घर लौट कर
जाने के अलावा किसी और चीज़ की नहीं है। घर पहुंचे। वहां प्रिसिपल साहिबा
समेत घर-पड़ोसियों की पंचायत चल रही थी।
बहरहाल, पिटाई नहीं हुई, हड़काई बहुत हुई। मां ने हड़काई लगाई। पिताजी ने
बिना कुछ कहे महज़ घूर कर साफ कर दिया कि स्कूल से भागने का खेल खत्म हो
गया है। पेपर नज़दीक हैं-पढ़ाई करो।
आज, 17-18 साल बाद न जाने क्यों रेशम फॉर्म के उन शहतूत के पेड़ों की याद
फिर आ रही है।
-पीयूष
बड़ों की देखकर दुनिया बड़ा होने से डरता है
-राजेश रेड्डी
बड़ो की दुनिया वास्तव में कुछ ऐसी ही है। ज़िंदगी की तमाम दुश्वारियां
इंसान को एक चक्रव्यूह में घेरे रहती हैं। ऐसे में, बचपन की कुछ शरारतें
याद आती हैं - तो चेहरे पर अनायास मुस्कुराहट तैर जाती है।
बचपन के इन्हीं दिनों का एक किस्सा मुझे याद आ गया। ये बात है 1989-90
की। उन दिनों मैं क्लास आठ में हुआ करता था। औरेया के जिस तथाकथित
"कॉन्वेंट" स्कूल में हम पढ़ा करते थे-वहां वास्तव में हम खेलने जाया
करते थे। आलम ये कि स्कूल में बैग के साथ हेलमेट, विकेट, पैड समेत
क्रिकेट का सारा सामान भी हम दोस्त टांग कर ले जाया करते थे। इसके बाद,
इंटरवल तक पढ़ाई - फिर खिलाई। यानी आधी पाली सिर्फ खेला करते थे। क्रिकेट
का जुनून था उन दिनों। मज़ेदार बात ये कि हमारी क्लास में महज आठ बच्चे
हुआ करते थे। इनमें से एक मेरा पड़ोसी और बेहद खास दोस्त शामिल था।
छात्रों में एक बालिका थी। आठ खिलाड़ियों में क्रिकेट क्या खाक
खेलते-लिहाजा क्लास सात के छात्रों की भी छुट्टी करा ली जाती थी।
हमारे स्कूल की प्रीसिंपल साहिबा हमारे घर के पास रहती थीं और बहुत अच्छी
थी। इंटरवल के बाद खेलने-कूदने की इजाजत देने में कोई आनाकानी नहीं करती
थीं। उनकी इजाजत ने हमें आधी पाली में खेल की ऐसी लत लगा दी कि छुट्टी न
मिलने पर हम सातों छात्र स्कूल से भाग जाते। पता नहीं, इस बात की कभी
घरवालों से शिकायत क्यों नहीं की गई या स्कूल में अगले दिन पीटा क्यों
नहीं गया ( शायद, इतने ब्रिलिएंट बच्चों को उनकी दूरदर्शी नज़रों ने उसी
वक्त पहचान लिया था ! ), पर इजाजत न मिलने पर अक्सर ऐसा होता था।
उन दिनों स्कूल के सामने एक रेशम फॉर्म था। स्कूल से भागकर हम लोग सीधे
रेशम फॉर्म में घुस जाते और दो-तीन घंटे तक शहतूत खाते थे।
उन दिनों औरेया बहुत छोटा सा कस्बा था। अब ज़िला हो गया है। हमारा जूनियर
हाई स्कूल घर से काफी दूर था, लेकिन बाईक से दूरी 10 मिनट से ज्यादा नहीं
थी। इसी दौरान, एक दिन अचानक दोपहर में पिताश्री को क्या सूझा कि वो
वीसीआर खरीद लाए। वीसीआर पर फिल्म देखना खासा रॉयल था, सो पिताजी ने इस
सम्मान में अपने बड़े बेटे को भी भागीदार बनाना चाहा और मेरे छोटे भाई के
साथ स्कूल टपक गए।
लेकिन, हम स्कूल में होते तो उन्हें मिलते। उन्हें पहली बार पता चला कि
उनका बड़ा बेटा इतना लायक हो गया है कि अपने पैरों पर स्कूल से भागने लगा
है (वहां अपहरण का बड़ा खतरा रहता था)। उन्होंने वहां टीचरों से जो
कहा,सो कहा, पर हम दोनों( मैं और दोस्त) के बैग लेकर चलता हो लिए।
काले-मीठे शहतूत खाकर मन भरा तो हम भी स्कूल पहुंचे। पता चला "अंकल जी तो
बैग ले गए"। अब, डर के मारे हाथ-पैर फूल गए। ऐसा लगा कि मानो बापू ने एक ही गुगली में सातों खिलाड़ियों को क्लीन बोल्ड कर डाला हो। नौबत गश खाकर वहीं गिरने की आ गई।
आंखों के सामने बेंत से पिटाई का दृश्य घूमने लगा( हालांकि कभी
ऐसे पीटा नहीं गया)। लगा कि आज भागने के अपने हुनर का इस्तेमाल घर छोड़कर
भागने के लिए कर लिया जाए। कहां जाए, क्या करें, किससे कहें ? दो घंटे
सैकड़ों विकल्पों पर विचार करने के बाद लगा कि अपनी औकात अभी घर लौट कर
जाने के अलावा किसी और चीज़ की नहीं है। घर पहुंचे। वहां प्रिसिपल साहिबा
समेत घर-पड़ोसियों की पंचायत चल रही थी।
बहरहाल, पिटाई नहीं हुई, हड़काई बहुत हुई। मां ने हड़काई लगाई। पिताजी ने
बिना कुछ कहे महज़ घूर कर साफ कर दिया कि स्कूल से भागने का खेल खत्म हो
गया है। पेपर नज़दीक हैं-पढ़ाई करो।
आज, 17-18 साल बाद न जाने क्यों रेशम फॉर्म के उन शहतूत के पेड़ों की याद
फिर आ रही है।
-पीयूष
शुक्रवार, 6 अप्रैल 2007
काश! मैं तब वोट डाल पाता
"मैं और वो आमने-सामने थे। पिटने की आशंका भर से मेरे तोते उड़ गए।
लेकिन,वो मुस्कुराया और फिर मुझे टकटकी लगाकर देखने लगा.....।"
ये ट्रेलर है-एक छोटे से किस्से का। ट्रेलर इसलिए क्योंकि आप पूरी फिल्म
देखें। बहरहाल, अब आप फिल्म देखें या न देखें-हमें तो थिएटर वाले
हैं-पूरी फिल्म चलाएंगे।
दिल्ली में एमसीडी चुनाव के मौके पर ये किस्सा याद आ गया। किस्सा कुछ यूं है कि खासी भीड़ में वोटिंग और फर्जी वोटिंग के साहस के मज़े के हमनें किस्से सुनें तो मन हुआ कि क्यों न वोट डाला जाए।
ए कहिन वोट डालें, बी कहिन वोट डालें, फत्ते कहिन वोट डालें तो हमऊं कहिन
चलो वोट डालें। लेकिन, हमारी उम्र तो थी महज 14-15 साल। लेकिन,ये चुनाव
साला हर पांच साल में ही आता है। अब क्या करें ? वोटिंग के दिन हमने देखा
कि मुहल्ले के कुछ यार-दोस्त फर्जी वोट डाल चुके हैं और अब दूसरे की
तैयारी कर रहे हैं। हमने भी एक फर्जी पर्ची कटायी और वोट डालने के लिए
मुहल्ले के सामने इंटर कॉलेज में बने मतदान केंद्र की लाइन में लग गए।
ये बात शायद 1991-92 का है। जैसे-जैसे कतार आगे बढ़ रही थी-हमारा दिल
बल्लियों उछलने लगा। दरअसल, यह अनुभव शायद कुछ ऐसा ही था-मानो
दादा-परदादा शादी से पहले सेक्स न करने का फ़रमान सुना चुके हैं और साहब
जादे अपने बूते गुलछर्रे उड़ा आए। बहरहाल, वोट डालने के लिए हम बिलकुल उस
कमरे में पहुंच गए-जहां वोट डाला जाना था। लेकिन, जैसे ही मैंने अपनी
पर्ची देकर बैलट पेपर लेना चाहा, काउंटर पर खड़े एक पोलिंग एजेंट ने देख
लिया। उसने मेरा "मासूम चेहरा" देखा, "नन्हीं उमरिया" और हाथ में पर्ची
देखी।
अब "मैं और वो आमने-सामने थे। पिटने की आशंका भर से मेरे तोते उड़ गए।
लेकिन,वो मुस्कुराया और फिर मुझे टकटकी लगाकर देखने लगा.....।"
दो पल देखने के बाद वो पोलिंग एजेंट मुस्कुरा कर बोला-" बेटा, घर
जाओ-अगले चुनाव में वोट डालना।"
मेरा सुंदर सपना टूट गया। अरमान बिखर गए। कुछ दोस्तों ने हंसी उड़ायी, पर
मैं करता तो क्या ?
हां, मैंने पांच साल बाद वोट डाला। अब उम्र 18 साल हो चुकी थी। एक
जिम्मेदारी निभाने को थोड़ा संतोष भले हो-लेकिन फर्जी वोट डालने सरीखी
उमंग नहीं थी।
-पीयूष
लेकिन,वो मुस्कुराया और फिर मुझे टकटकी लगाकर देखने लगा.....।"
ये ट्रेलर है-एक छोटे से किस्से का। ट्रेलर इसलिए क्योंकि आप पूरी फिल्म
देखें। बहरहाल, अब आप फिल्म देखें या न देखें-हमें तो थिएटर वाले
हैं-पूरी फिल्म चलाएंगे।
दिल्ली में एमसीडी चुनाव के मौके पर ये किस्सा याद आ गया। किस्सा कुछ यूं है कि खासी भीड़ में वोटिंग और फर्जी वोटिंग के साहस के मज़े के हमनें किस्से सुनें तो मन हुआ कि क्यों न वोट डाला जाए।
ए कहिन वोट डालें, बी कहिन वोट डालें, फत्ते कहिन वोट डालें तो हमऊं कहिन
चलो वोट डालें। लेकिन, हमारी उम्र तो थी महज 14-15 साल। लेकिन,ये चुनाव
साला हर पांच साल में ही आता है। अब क्या करें ? वोटिंग के दिन हमने देखा
कि मुहल्ले के कुछ यार-दोस्त फर्जी वोट डाल चुके हैं और अब दूसरे की
तैयारी कर रहे हैं। हमने भी एक फर्जी पर्ची कटायी और वोट डालने के लिए
मुहल्ले के सामने इंटर कॉलेज में बने मतदान केंद्र की लाइन में लग गए।
ये बात शायद 1991-92 का है। जैसे-जैसे कतार आगे बढ़ रही थी-हमारा दिल
बल्लियों उछलने लगा। दरअसल, यह अनुभव शायद कुछ ऐसा ही था-मानो
दादा-परदादा शादी से पहले सेक्स न करने का फ़रमान सुना चुके हैं और साहब
जादे अपने बूते गुलछर्रे उड़ा आए। बहरहाल, वोट डालने के लिए हम बिलकुल उस
कमरे में पहुंच गए-जहां वोट डाला जाना था। लेकिन, जैसे ही मैंने अपनी
पर्ची देकर बैलट पेपर लेना चाहा, काउंटर पर खड़े एक पोलिंग एजेंट ने देख
लिया। उसने मेरा "मासूम चेहरा" देखा, "नन्हीं उमरिया" और हाथ में पर्ची
देखी।
अब "मैं और वो आमने-सामने थे। पिटने की आशंका भर से मेरे तोते उड़ गए।
लेकिन,वो मुस्कुराया और फिर मुझे टकटकी लगाकर देखने लगा.....।"
दो पल देखने के बाद वो पोलिंग एजेंट मुस्कुरा कर बोला-" बेटा, घर
जाओ-अगले चुनाव में वोट डालना।"
मेरा सुंदर सपना टूट गया। अरमान बिखर गए। कुछ दोस्तों ने हंसी उड़ायी, पर
मैं करता तो क्या ?
हां, मैंने पांच साल बाद वोट डाला। अब उम्र 18 साल हो चुकी थी। एक
जिम्मेदारी निभाने को थोड़ा संतोष भले हो-लेकिन फर्जी वोट डालने सरीखी
उमंग नहीं थी।
-पीयूष
बुधवार, 4 अप्रैल 2007
हाय, चैनल वालों ने जात मेरी लूटी रे....
जोधपुर के पुराने क़िले के पिछवाड़े शूटिंग चल रही है। बैकग्राउण्ड में क़िला दिखना है - थोड़ी दूर पर श्मशान। लाइट-साउण्ड और धुएँ की व्यवस्था की जा चुकी है। डायरेक्टर (कार्यक्रम का प्रोड्यूसर) ने कलाकार को अपना दृश्य समझा दिया है.... लेकिन तीन-चार री-टेक के बाद भी मज़ा नहीं आ रहा। वजह?
चैनल के एक भूतहा कार्यक्रम की शूटिंग के दौरान दृश्य श्मशान में बैठकर इंसान का मांस खाने का है। रिक्रिएशन यानि नाट्य रुपांतरण में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है - लेकिन डायरेक्टर को लगा कि दृश्य फ़िल्माने वाला कलाकार का चेहरा कुछ ज़्यादा ही शहरी या मॉर्डन है।
आदेश हुआ कि कोई दूसरा कलाकार लाया जाए। अब, रात के आठ बजे, कहाँ से लाएँ कोई दूसरा कलाकार? लेकिन, शहर में ही रहने वाले ड्राईवर ने कहा कि वो कुछ व्यवस्था कर लाता है। थोड़ी देर में एक 15-16 साल की लड़की उसके साथ हाज़िर थी। डायरेक्टर ने अब उसको दृश्य समझाया। लेकिन, सीन सुनते ही लड़की उखड़ गई - "मैं ब्राह्मण हूँ। मैं मांस नहीं खाती... छि: छि: छि:"। डायरेक्टर ने उसे समझाया कि शव के पास बैठकर मांस खाना नहीं है बल्कि महज़ एक्टिंग करनी है। इसके लिए लड़की को एक हज़ार रुपये देना भी तय किया गया।
लड़की ने परफ़ेक्ट एक्टिंग की। भूतहा कार्यक्रम हिट रहा। लेकिन, इस प्रोग्राम के प्रसारित होने के दो-तीन दिन बाद लड़की का फ़ोन आया - "आप लोगों ने मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर दी। मुझसे झूठ बोला। मैं ब्राह्मण लड़की हूँ। अब, टीवी पर मुझे मांस खाते हुए देखकर मेरे परिवार ने ही मुझे निकाल दिया है। आपने तो मांस कहा था - लेकिन टीवी पर बार-बार बताया गया कि मैं इंसान का मांस खाती हूँ।"
दरअसल, यह क़िस्सा है एक टेलीविजन चैनल के लिए बनने वाले एक भूतहा कार्यक्रम के दौरान का। यह लड़की ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी। उसका परिवार भी ग्रामीण परिवारों जैसा सामान्य था। चैनल वालों ने उस लड़की का इस्तेमाल कर लिया - लेकिन पूरा सच नहीं बताया। वैसे, ये ज़्यादा बड़ी घटना नहीं है। रिक्रिएशन यानी नाट्य रुपांतरण के दौरान कई बार घटनास्थल के आस-पास के लोग ही एक्टिंग के लिए चुन लिए जाते हैं - लेकिन इस कोरी नौटंकी में कभी-कभार किसी की जात भी लुट जाती है.....।
अब, इसका ज़िम्मेदार कौन है - इसका जवाब कोई नहीं देता?
चैनल के एक भूतहा कार्यक्रम की शूटिंग के दौरान दृश्य श्मशान में बैठकर इंसान का मांस खाने का है। रिक्रिएशन यानि नाट्य रुपांतरण में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है - लेकिन डायरेक्टर को लगा कि दृश्य फ़िल्माने वाला कलाकार का चेहरा कुछ ज़्यादा ही शहरी या मॉर्डन है।
आदेश हुआ कि कोई दूसरा कलाकार लाया जाए। अब, रात के आठ बजे, कहाँ से लाएँ कोई दूसरा कलाकार? लेकिन, शहर में ही रहने वाले ड्राईवर ने कहा कि वो कुछ व्यवस्था कर लाता है। थोड़ी देर में एक 15-16 साल की लड़की उसके साथ हाज़िर थी। डायरेक्टर ने अब उसको दृश्य समझाया। लेकिन, सीन सुनते ही लड़की उखड़ गई - "मैं ब्राह्मण हूँ। मैं मांस नहीं खाती... छि: छि: छि:"। डायरेक्टर ने उसे समझाया कि शव के पास बैठकर मांस खाना नहीं है बल्कि महज़ एक्टिंग करनी है। इसके लिए लड़की को एक हज़ार रुपये देना भी तय किया गया।
लड़की ने परफ़ेक्ट एक्टिंग की। भूतहा कार्यक्रम हिट रहा। लेकिन, इस प्रोग्राम के प्रसारित होने के दो-तीन दिन बाद लड़की का फ़ोन आया - "आप लोगों ने मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर दी। मुझसे झूठ बोला। मैं ब्राह्मण लड़की हूँ। अब, टीवी पर मुझे मांस खाते हुए देखकर मेरे परिवार ने ही मुझे निकाल दिया है। आपने तो मांस कहा था - लेकिन टीवी पर बार-बार बताया गया कि मैं इंसान का मांस खाती हूँ।"
दरअसल, यह क़िस्सा है एक टेलीविजन चैनल के लिए बनने वाले एक भूतहा कार्यक्रम के दौरान का। यह लड़की ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी। उसका परिवार भी ग्रामीण परिवारों जैसा सामान्य था। चैनल वालों ने उस लड़की का इस्तेमाल कर लिया - लेकिन पूरा सच नहीं बताया। वैसे, ये ज़्यादा बड़ी घटना नहीं है। रिक्रिएशन यानी नाट्य रुपांतरण के दौरान कई बार घटनास्थल के आस-पास के लोग ही एक्टिंग के लिए चुन लिए जाते हैं - लेकिन इस कोरी नौटंकी में कभी-कभार किसी की जात भी लुट जाती है.....।
अब, इसका ज़िम्मेदार कौन है - इसका जवाब कोई नहीं देता?
मंगलवार, 3 अप्रैल 2007
पियक्कड़ों से पंगा
दिल्ली के पियक्कड़ परेशान हैं। मैखाने चार दिन तक बंद रहेंगे। एमसीडी चुनाव पांच अप्रैल को हैं-लिहाजा उस दिन शराब की दुकानें बंद हैं। इससे एक दिन पहले यानी चार अप्रैल को भी मयखानों पर ताला जड़ा रहेगा। किस्मत का खेल देखिए-छह अप्रैल को गुड फ्राइडे पड़ गया, सो उस दिन भी पियक्कड़ों को गला तर्र करने में दिक्कत होनी है और सात अप्रैल को मतों की गिनती होगी, इसलिए पीने वालों को दारु मिलने में परेशानी होगी।
लेकिन,किस्सा ये नहीं है। ये तो एक ख़बर है-जिसके चलते दिल्ली के पियक्कड़ परेशान है। समझदार दारुबाजों ने दारु का स्टॉक जमा कर लिया है। दरअसल, इस ख़बर को पढ़ने के बाद एक दिलचस्प किस्सा याद आ गया।
बात कुछ साल पहले की है। दिल्ली में तब भी लगातार दो दिन ड्राईडे था। दूसरे दिन अचानक शाम के अखबार में एक ख़बर छपी। बड़े फांट वाली हेडलाइन थी-लाखों ने मुफ्त पी, सैकड़ों कल पीएंगे।
मुझे याद है कि बस में बैठे करीब 60 लोगों में से 20-25 लोगों ने महज हेडलाइन पढ़कर अखबार खरीद लिया। लेकिन, मज़ा तब आया-जब सभी ने ख़बर पढ़ी। दरअसल, यह ख़बर पल्स पोलियो डे से संबंधित थी। जिसमें कहा गया था- लाखों बच्चों को मुफ्त में पोलिया की दवा पिलाई गई और जो छूट गए हैं उन्हें कल पिलाई जाएगी।
यानि ड्राई डे में पियक्कडों से एक अखबार ने ठिठौली कर दी...
-पीयूष
लेकिन,किस्सा ये नहीं है। ये तो एक ख़बर है-जिसके चलते दिल्ली के पियक्कड़ परेशान है। समझदार दारुबाजों ने दारु का स्टॉक जमा कर लिया है। दरअसल, इस ख़बर को पढ़ने के बाद एक दिलचस्प किस्सा याद आ गया।
बात कुछ साल पहले की है। दिल्ली में तब भी लगातार दो दिन ड्राईडे था। दूसरे दिन अचानक शाम के अखबार में एक ख़बर छपी। बड़े फांट वाली हेडलाइन थी-लाखों ने मुफ्त पी, सैकड़ों कल पीएंगे।
मुझे याद है कि बस में बैठे करीब 60 लोगों में से 20-25 लोगों ने महज हेडलाइन पढ़कर अखबार खरीद लिया। लेकिन, मज़ा तब आया-जब सभी ने ख़बर पढ़ी। दरअसल, यह ख़बर पल्स पोलियो डे से संबंधित थी। जिसमें कहा गया था- लाखों बच्चों को मुफ्त में पोलिया की दवा पिलाई गई और जो छूट गए हैं उन्हें कल पिलाई जाएगी।
यानि ड्राई डे में पियक्कडों से एक अखबार ने ठिठौली कर दी...
-पीयूष
सोमवार, 2 अप्रैल 2007
केतु - काला कुत्ता और कंटाप पे चाँटा
केतु वैसे भी मारक ग्रह माना जाता है - लेकिन एक दिन इसने हमारी पिटाई का इंतज़ाम भी कर दिया था। दरअसल, मामला कुछ ऐसा है कि कॉलेज के दिनों में हम अपने दोस्त के साथ बैठे बतिया रहे थे। ज्योतिष में अपनी थोड़ी-बहुत रुचि है - लिहाज़ा कुछ सीखे फ़ंडे ठीक हैं या नहीं - ये जानने के लिए प्रैक्टिकल करते रहते हैं।
उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। अचानक कैंटीन में एक छात्र पहुँचा। उसका हाव-भाव और चेहरा कुछ ऐसा था कि मुझे लगा कि इसकी कुंडली में केतु कुछ गड़बड़ जरुर होगा (सीखे हुए फ़ंडों पर आधारित)। इसी दौरान, दोस्त से अचानक ज्योतिष पर चर्चा हो उठी तो ये बात हमने उससे भी कह डाली।
दोस्त ने कौतुहल में पूछा कि तुम ऐसा ऐसे कह सकते हो कि उसका केतु ख़राब है तो मैंने सामान्य शब्दों में कहा कि - "वैसे, कुछ ज्योतिषीय लक्षण हैं लेकिन सामान्य रुप से कहें तो उसके दाँत कुछ बड़े और बाहर को निकले हुए हैं, रंग और लंबाई भी कुछ ऐसे था कि उसका केतु ख़राब होने की आशंका है। इसके अलावा, मुझे लगता है कि उसे कभी न कभी काले कुत्ते ने काटा होगा।"
ये बात सीधे-सीधे मेरे और दोस्त के बीच थी। लेकिन, कुछ दोस्त ऐसे भी होते हैं - जो आपके दुश्मनों को मात कर दें। भाई ने अचानक कहा कि मैं उससे जाकर पूछता हूँ। मैंने कहा - "ये पूछना कि क्या उसे कभी किसी कुत्ते ने काटा है?" दोस्त ने उसके पास जो पूछा उसने हमारी ऐसी-तैसी करवा दी। दोस्त ने पूछा - "क्या तुम्हें कभी किसी काले कुत्ते ने काटा है।" उस छात्र ने जवाब दिया - "नहीं, लेकिन क्या बात है। तुम क्यों पूछ रहे हो"। हमारे मित्र का जवाब सुनिए - "वो पीयूष कह रहा है कि तुम्हारें दांत निकले हुए हैं इसलिए ज़रुर तुम्हें काले कुत्ते ने काटा होगा।"
लीजिए, यह जवाब किसी को भी बुरा लगेगा - तो उस छात्र को भी लग गया। थोड़ी देर में पता चला कि 40-50 छात्रों ने मुझे घेर लिया। थोड़ा बहुत हड़काया कि तुम ऐसे कैसे बात करते हो। मैंने उन्हें समझाया कि भइया अपना ऐसा कोई मक़सद नहीं था। हम ज्योतिष पर कुछ बात कर रहे थे और हमारे कहने का उद्देश्य किसी के शारीरिक हाव-भाव पर टीका-टिप्पणी करने का नहीं था। बहरहाल, दो-चार मिनट तक उन्होंने मुझे हड़काया। लगा कि कंटाप पर बजने को है - लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
इस क़िस्से की सीख यही है कि ऐसे हालात में तय कर लेना चाहिए कि आपका दोस्त या अन्य शख़्स किसी तीसरे से आपकी कही बात को किस तरह कहने जा रहा है। बहरहाल, इस घटना के बाद ख़ून में उबाल आया तो तय कर लिया कि अब उसकी हेकड़ी निकाल ही दी जाए। यार-दोस्तों ने भी वक़्त मुकर्रर कर दिया कि अगली सुबह कॉलेज में उसका बैंड-बाजा बजा ही दिया जाए। लेकिन, रात में ख़याल आया कि किसी की शारीरिक कमज़ोरी अथवा बनावट पर टिप्पणी करोगे तो उसे ख़राब लगना लाज़िमी है।
फ़िलहाल, वो जनाब इस ख़ुशफ़हमी में होंगे कि उन्होंने हमें हड़का दिया था। लेकिन, आज ऐसा लगता है कि अगर अब कभी वो लड़का मुझे मिल गया तो उसका टेंटुआ पकड़कर एक बात तो समझा दी जाए कि भइया तुमने हमें हड़काया नहीं था बल्कि हम खुद शांत हो गए थे क्योंकि हमें लगा था कि हमसे ग़लती हो गई। वरना, अपने शहर में किसी दूसरे शहर का छोरा हड़का जाए - ये तो घोर इनसलेट है भइए !
उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। अचानक कैंटीन में एक छात्र पहुँचा। उसका हाव-भाव और चेहरा कुछ ऐसा था कि मुझे लगा कि इसकी कुंडली में केतु कुछ गड़बड़ जरुर होगा (सीखे हुए फ़ंडों पर आधारित)। इसी दौरान, दोस्त से अचानक ज्योतिष पर चर्चा हो उठी तो ये बात हमने उससे भी कह डाली।
दोस्त ने कौतुहल में पूछा कि तुम ऐसा ऐसे कह सकते हो कि उसका केतु ख़राब है तो मैंने सामान्य शब्दों में कहा कि - "वैसे, कुछ ज्योतिषीय लक्षण हैं लेकिन सामान्य रुप से कहें तो उसके दाँत कुछ बड़े और बाहर को निकले हुए हैं, रंग और लंबाई भी कुछ ऐसे था कि उसका केतु ख़राब होने की आशंका है। इसके अलावा, मुझे लगता है कि उसे कभी न कभी काले कुत्ते ने काटा होगा।"
ये बात सीधे-सीधे मेरे और दोस्त के बीच थी। लेकिन, कुछ दोस्त ऐसे भी होते हैं - जो आपके दुश्मनों को मात कर दें। भाई ने अचानक कहा कि मैं उससे जाकर पूछता हूँ। मैंने कहा - "ये पूछना कि क्या उसे कभी किसी कुत्ते ने काटा है?" दोस्त ने उसके पास जो पूछा उसने हमारी ऐसी-तैसी करवा दी। दोस्त ने पूछा - "क्या तुम्हें कभी किसी काले कुत्ते ने काटा है।" उस छात्र ने जवाब दिया - "नहीं, लेकिन क्या बात है। तुम क्यों पूछ रहे हो"। हमारे मित्र का जवाब सुनिए - "वो पीयूष कह रहा है कि तुम्हारें दांत निकले हुए हैं इसलिए ज़रुर तुम्हें काले कुत्ते ने काटा होगा।"
लीजिए, यह जवाब किसी को भी बुरा लगेगा - तो उस छात्र को भी लग गया। थोड़ी देर में पता चला कि 40-50 छात्रों ने मुझे घेर लिया। थोड़ा बहुत हड़काया कि तुम ऐसे कैसे बात करते हो। मैंने उन्हें समझाया कि भइया अपना ऐसा कोई मक़सद नहीं था। हम ज्योतिष पर कुछ बात कर रहे थे और हमारे कहने का उद्देश्य किसी के शारीरिक हाव-भाव पर टीका-टिप्पणी करने का नहीं था। बहरहाल, दो-चार मिनट तक उन्होंने मुझे हड़काया। लगा कि कंटाप पर बजने को है - लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
इस क़िस्से की सीख यही है कि ऐसे हालात में तय कर लेना चाहिए कि आपका दोस्त या अन्य शख़्स किसी तीसरे से आपकी कही बात को किस तरह कहने जा रहा है। बहरहाल, इस घटना के बाद ख़ून में उबाल आया तो तय कर लिया कि अब उसकी हेकड़ी निकाल ही दी जाए। यार-दोस्तों ने भी वक़्त मुकर्रर कर दिया कि अगली सुबह कॉलेज में उसका बैंड-बाजा बजा ही दिया जाए। लेकिन, रात में ख़याल आया कि किसी की शारीरिक कमज़ोरी अथवा बनावट पर टिप्पणी करोगे तो उसे ख़राब लगना लाज़िमी है।
फ़िलहाल, वो जनाब इस ख़ुशफ़हमी में होंगे कि उन्होंने हमें हड़का दिया था। लेकिन, आज ऐसा लगता है कि अगर अब कभी वो लड़का मुझे मिल गया तो उसका टेंटुआ पकड़कर एक बात तो समझा दी जाए कि भइया तुमने हमें हड़काया नहीं था बल्कि हम खुद शांत हो गए थे क्योंकि हमें लगा था कि हमसे ग़लती हो गई। वरना, अपने शहर में किसी दूसरे शहर का छोरा हड़का जाए - ये तो घोर इनसलेट है भइए !
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