सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

लवलीन और ऑस्कर

“मेरी जिंदगी का ख्वाब है सत्तर एमएम की फिल्म बनाना। लेकिन अभी वो बहुत बाद की बात है”

२० अप्रैल १९९७ को एक इंटरव्यू में लवलीन ने मुझसे ये बात कही थी। आज करीब १२ साल बाद अचानक मुझे लवलीन का ये स्टेटमेंट शिद्दत से याद आ रहा है,जब हॉलीवुड के कोडक थिएटर में स्लमडॉग मिलिनेयर को मिले आठ अवॉर्ड लेने के बाद पूरी टीम के बीच लवलीन का चेहरा दिखा।
लवलीन का संभवत पहला इंटरव्यू मैंने लिया था। दैनिक जागरण के लिए। राजीव कटारा जी से (उस वक्त वो फीचर एडिटर थे) सहमति लेकर मैंने लवलीन का इंटरव्यू किया था। वो उन दिनों एआईआर एफएम पर एंकर थी। ब्रोकन हार्ट नाम से एक प्रोग्राम एंकर करती थी रात ११ बजे।

लवलीन से पहली मुलाकात आकाशवाणी भवन में ही हुई। जहां कैंटीन में उससे पूरा इंटरव्यू किया। इंटरव्यू लेने का मकसद आकाशवाणी की एक एंकर से पाठकों को रुबरु कराना था,सो ज्यादातर सवाल रेडियो से जुड़े थे। लवलीन ने बताया कि वो जामिया से मास कम्यूनिकेशन का कोर्स करने के दौरान फर्स्ट इयर में ही एफएम से जुड़ गई। बताया कि ज्यादा मजा हिन्दी कार्यक्रमों को करने में आता है क्योंकि ये अपनी भाषा है। बताया कि वो जल्दी ही टीवी पर भी कुछ कार्यक्रमों की एंकरिंग करने वाली है। (बाद में सुहैब इलियासी के प्रोग्राम इंडियाज मोस्ट वांटेड के पहले पांच सात एपिसोड लवलीन ने ही एंकर किए)। लेकिन,बाद में लवलीन ने जो कहा वो था-

“मेरी जिंदगी का ख्वाब है सत्तर एमएम की फिल्म बनाना। लेकिन अभी वो बहुत बाद की बात है”

इंटरव्यू २३ अप्रैल को प्रकाशित हुआ तो लवलीन का कर्टसी फोन आया। दिलचस्प बात ये कि उसी दिन उसी पेज पर नसीरुद्दीन शाह का इंटरव्यू प्रकाशित हुआ था ठीक लवलीन के इंटरव्यू के नीचे। लेकिन,नसीरुद्दीन शाह का इंटरव्यू चौड़ाई में आधा था,जबकि लवलीन का इंटरव्यू खासा बड़ा। लवलीन इस बात से थोड़ी उत्साहित और थोड़ी Embarrass थी। आखिर,नसीरुद्दीन शाह उसके फेवरेट एक्टर हैं,और उन्हीं की जाने भी दो यारों फेवरेट फिल्म।

इस मुलाकात के बाद लवलीन से तीन चार मुलाकातें हुईं। फोन पर कभी कभार अभी भी बात होती है। वो मीरा नायर के जुड़ी। अर्थ की शूटिंग के दौरान। फिर, दीपा मेहता के साथ काम किया। और अब डैनी बॉयल के साथ।

लवलीन की मौजूदगी ने ही इस फिल्म और इस ऑस्कर को खास बनाया है। इसकी वजह है। दरअसल,लवलीन टंडन फिल्म की को-डायरेक्टर है,और उन्हे ऑस्कर के लिए बॉयल के साथ नामांकित करने की मांग भी उठी। लेकिन,लवलीन शायद जानती है कि उन्हें बॉयल ने ही को-डायरेक्टर बनवाया है,लिहाजा उन्हें संयुक्त रुप से नामित होने से मना कर दिया। ये लवलीन का बड़प्पन भी है। लेकिन,को-डायरेक्टर के रुप में लवलीन की मौजदूगी ही फिल्म को पूरी तरह भारतीय बनाती है। फिल्म के एक्टर और तकनीशियन कई हॉलीवुड फिल्मों में काम करते रहे हैं,लेकिन ये पहला मौका है कि जब ऑस्कर जीतने वाली किसी फिल्म का को-डायरेक्टर भारतीय हो। ये अलग बात है कि स्लमडॉग के डायरेक्टर के रुप में डैनी को अवॉर्ड मिला लेकिन लवलीन की भूमिका कम नहीं रही। कास्टिंग से लेकर, स्क्रिप्ट में हिन्दी संवादों तक में लवलीन ने ही अपनी भूमिका निभायी है। खैर, लवलीन को ऑस्कर अवॉर्ड समारोह में देखकर ही अच्छा लग रहा है।

अब, लग रहा है कि लवलीन का ख्वाब सच होने को है। पूरी तरह ………………॥

बुधवार, 3 सितंबर 2008

मुहब्बत जो कराए, सो कम है

ज़िंदगी में कुछ यादें ऐसी होती हैं,जिनकी याद भर आते ही अब होंठों पर मुस्कान तैर जाती है। लेकिन,घटना(हादसा) के वक्त काटो तो खून नहीं जैसा मामला होता है। ऐसा ही एक दिलचस्प किस्सा आज याद आ गया है।

फतेहपुर सीकरी के एलीफेंट टॉवर की महिमा आप सुन चुके हैं। और उसका नतीजा भी मालूम है। लेकिन, एलीफेंट टॉवर पर चढ़ने और हमारे विवाह के बीच एक दौर और आया था-"एंगेजमेंट पीरियड"। बड़ा रुमानी दौर होता है ये। अब सगाई हो चुकी थी, तो अपनी भावी पत्नी से फोन पर बतियाने की खुली छूट मिल चुकी थी। लेकिन, हिन्दुस्तानियों को उंगली पकड़ कर पौचा पकड़ने की आदत होती है,सो इस खुली छूट का नाजायज फायदा उठाना हमने शुरु किया। वो ऐसे कि दिन तो दिन...रात में तीन-चार और कभी कभी पांच बजे तक बतियाते रहते। अब,क्या बात होती,ये पूछने का आपको हक नहीं है!

तो जनाब,ऐसी ही एक अंधियारी रात को हम मोहतरमा से बतिया रहे थे। चूंकि,वार्ता की ये रात्रिकालीन सेवा रात 12 बजे ही शुरु होती थी,तो सेवा सुचारु रुप से चल रही थी। रात के तीन-साढ़े तीन बज रहे थे कि अचानक फोन कट गया। हमारे फोन से रिंग टोन गायब! मुश्किल ये कि ऐसी हालत में दूसरी तरफ से फोन लगाने की कोशिश जारी रहनी थी।

अब,मरता क्या न करता। रात के तीन बजे घर की बालकनी में मेन टेलीफोन तार को देखने का बीड़ा उठाया। घर के अंदर से ऊंचा स्टूल सटाया और बारीकी से जांच की गई। गॉट इट....! तार ही कुछ निकला सा दिख रहा था...अब काम बन गया......।

बस,काम बन जाने की सोच के साथ अपन तल्लीनता से रात के साढे तीन बजे फोन ठीक करने में जुट गए। लेकिन, इस ऑपरेशन "रात्रि सेवा" को पूरा कर हम नीचे उतरते,इससे पहले हमारी आंख नीचे उतरी, और देखा तो हमारे बापू खड़े होकर पूरा तमाशा देख रहे थे।

अंधियारे में बापू के चेहरे पर क्रोध था या ज्ञान से पहले का कालिदास पाने का पश्चाताप-ये तो अपन नहीं देख पाए। लेकिन,पिताजी ने ये कहकर और हालत खराब कर दी....."क्यों,फोन कट गया था क्या?"
होश फाख्ता थे,शब्द जुबां का साथ छोड़ चुके थे। गर्दन हिलायी,और फौरन बिस्तर पर शरीर दे मारा। हां, थोड़ी देर बात एक घंटी मारकर भावी पत्नी को जगाया...बताया....और "हादसे का ज़िक्र" कर फिर सो गया....।

शनिवार, 30 अगस्त 2008

ट्रिगर दबा,और वो मर गया.....

एक के हाथ में कट्टा था। नली दूसरे के माथे पर। बोल-चांदी सिंह...मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए।
मज़ाक मत कर रिंकू। चांदी थरथरा रहा था। माथे से पसीना का फुव्वारा फूट रहा था,और शब्द जुबां का साथ छोड़ चुके थे।
हम जैसे चिरकुट दोस्त इस तमाशे का मज़ा ले रहे थे....।
दरअसल, मुहल्ले का हमारा दोस्त चांदी कथित तौर पर बेहद डरपोक था।(शब्दावली बिगाड़ू तो हग्गू था)। वो घर में चूहे,कॉकरोच,बिल्ली से लेकर बाहर सड़क पर घूमने वाली गाय-भैंसों तक सबसे डरता था।अब,दुनिया का दस्तूर है कि जो डरता है,वो मरता है। सो,दोस्त लोग चांदी को डराने का ही एक खेल अक्सर खेला करते थे।
उस दिन ये खेल वीभत्स हो गया। हमारे एक दोस्त,जिनके भाई साहब इलाके के दबंगों में से एक थे, ने हमारे दूसरे दोस्त मिंटू की दुकान पर अपने कट्टे का प्रदर्शन किया। देसी कट्टे के सार्वजनिक प्रदर्शन के बाद कुछ दोस्त मिंटू की दुकान के बाहर गपशप करने लगे। लेकिन, इस दौरान कट्टा दुकान के भीतर रखा गया। और पता नहीं,मिंटू के बड़े भाई रिंकू को क्या सूझी कि उसने कट्टा लेकर चांदी के माथे पर टिका दिया।
रिंकू के एक हाथ में कट्टा था। नली दूसरे के माथे पर। बोल-चांदी सिंह...मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए। डायलॉग बाजी हो रही थी।
कंपकंपाया चांदी को कुछ दोस्त देख भी रहे थे,लेकिन शायद किसी को अंदाज नहीं था कि अब क्या होगा।
अचानक...रिंकू ने ट्रिगर दबा दिया......और यकीं जानिए ट्रिगर दबते ही चांदी गिर पड़ा। सब हंस पड़े। खिलखिलाकर। गोली चली नहीं,चांदी डर के मारे गिर पड़ा था।
लेकिन ये क्या...??? इस तमाशे की भनक कट्टे के मालिक यानी हमारे दोस्त को लगी,तो वो दौड़कर घटनास्थल पर पहुंचा। उसने सीधे रिंकू को मां-बहन की गालियां दी और कट्टा खोल कर दिखाया। कट्टा लोड़ था.....बस मिस हो गया।
देसी तमंचे की ये कमी(खूबी) पहली बार हमारे लिए वरदान साबित हुई।
अब,बारी चांदी की थी। चांदी उठा,और रिंकू की ऐसी-तैसी करते हुए दौड़ पड़ा। और हम सब चुपचाप वहां से खिसक लिए....।
दरअसल,औरेया में कट्टे,रिवॉल्वर छात्रों के हाथ में होना बड़ी बात नहीं थी। लेकिन,इस घटना ने कहीं न कहीं हमें सिखा दिया कि रंगबाजी के चक्कर में ऐसे खेल-मौत के खेल-भी हो सकते हैं।

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

शादी के लिए परेशान नौजवानों के लिए टोटका


लड़कियां भौचक। एतबार भी नहीं, इंकार भी नहीं। दिमाग कहे चलो ऊपर, लेकिन दिल कहे न..न....।

ये नज़ारा नहीं, एक किस्सा है। करीब 10 साल पहले का एक किस्सा। अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन के आखिरी साल में क्लास के कई लड़के-लड़कियां घूमने के लिए फतेहपुर सीकरी गए। कैसे गए-ये अलग किस्सा है। लेकिन,सलीम चिश्ती की दरगाह पर इबादत के बाद हम पहुंचे हाथी मीनार यानी एलिफेंट टॉवर।

फतेहपुर सीकरी गए सभी लोगों ने एलिफेंट टॉवर देखा होगा। लेकिन,शायद दूर से। दरअसल,एलिफेंट टॉवर के लिए दरगाह से करीब पौन किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है,और वहां कुछ देखने को भी नहीं है। हाथी मीनार अकबर के एक प्रिय हाथी का मकबरा है,और कहते हैं कि डूबते हुए सूरज को देखने के लिए अकबर यहां अपनी पत्नी के साथ आते थे।

मज़ेदार बात ये कि कई बार सीकरी देखने के बावजूद इस बार हमने हर चीज़ को बारीक से समझने के लिए एक गाइड किया था। और गाइड ने ऐलान कर डाला-हाथी मीनार पर अगर कोई भी लड़का-लड़की साथ चढ़ा,तो उसकी शादी तय है। दावे के बोल थे-"यहां भाई-बहन भी साथ चढ़ें तो उनकी शादी हो जाती है"

अब, डंके की चोट पर गाइड भाईसाहब ने ऐलान किया तो साथ गई लड़कियों के पेशानी पर बल पड़ गए।
लड़कियां भौचक। एतबार भी नहीं, इंकार भी नहीं। दिमाग कहे चलो ऊपर, लेकिन दिल कहे न॥न....।


दरअसल,एलिफेंट टॉवर में सात घुमावदार मोड़ हैं,जिन्हें सात फेरे बता दिया जाता है। बहरहाल,आधे घंटे की कवायद के बाद सिर्फ एक लड़की ने हिम्मत दिखायी-मुझसे कहा,चलो मैं चलती हूं।

खैर,मैं और वो साथ चढ़े। बैठे। नीचे आए,और फिर कई दिनों तक इस किस्से को याद करते रहे।

लेकिन,क्लाइमेक्स ये कि इस किस्से के करीब एक साल बाद डेढ़ साल बाद हमने शादी कर ली। हम जब घूमने गए थे,तो मैं और मेरी पत्नी सिर्फ 'दोस्त' भर थे। लेकिन,वक्त के साथ संबंध घनिष्ठ हुए और घर वालों को भनक लगते ही विवाह संपन्न हो गया।

आज पत्नी ने सुबह सुबह ताना कसा (अगर मैं न मिलती,तो कोई तुमसे शादी न करता) तो ये दिलचस्प किस्सा याद आ गया।

वैसे,एक मित्र 'विवेक' को इसका कई दिनों तक मलाल भी रहा कि वो क्यों न 'उसके' साथ ऊपर चढ़े,जिसे वो.........। उसकी "वो" नीचे ही बैठी रही थी।

अब,दिमाग भले यकीं न करे, पर अपने साथ घटित हुआ है तो इसे टोटके के रुप में अपन भी बता डालते हैं। अगर कोई ये टोटका आजमाए तो अपना किस्सा जरुर लिखे। वैसे,इस टोटके का रिजल्ट आने में एक-आध साल लग सकता है,लिहाजा नतीजे का किस्सा थोड़ा ठहरकर सुनाएं।

सोमवार, 25 अगस्त 2008

सुपरमैन बाप बनाम सिंह इज किंग

बेटा,बाप को सुपरमैन की छठी औलाद समझता हो, और बाप एक छोटा सा काम न कर पाए तो इमेज की ऐसी तैसी हो जाती है। इन दिनों,अपने साथ भी यही हो रहा है.....बेटे को 'सिंह इज किंग' देखनी है, और अपनी ज़िंदगी में ऐसा पहली बार हुआ,जब तीन बार एक ही फिल्म देखने थिएटर पहुंचे हों, और न देख पाए हों....एक बार शो हाऊसफुल था, दूसरी बार भीड़ इतनी ज्यादा की पहली-दूसरी कतार का ही टिकट मुमकिन था,और कल चिरकुट अखबार ने गलत सूचना छापकर खेल बिगाड़ डाला। अखबार में छपा था कि सुबह 11 बजे का शो है,और शो उस थिएटर में साढ़े दस बजे ही शुरु हो ।

अब, बालक के साथ इतना भद्दा मजाक तीन बार हो,तो उसका रोना लाज़िमी है। उसने सीधा सवाल दागा-ये थिएटर होते ही क्यों है,पिक्चर देखने के लिए न, तो यहां टिकट क्यों नहीं मिलता?लेकिन,लुढ़िस किस्मत का रोना इसलिए भी ज्यादा आया कि इससे पहले हमने पिक्चर को लात मारी थी,पिक्चर ने हमें नहीं।

शुरुआत,25-26 साल पहले फिल्म 'दोस्ताना' से हुई थी। अपनी उम्र भी बालक की उम्र जितनी थी। फिल्म की शुरुआत में ही अमिताभ बच्चन ने रिवॉल्वर निकालकर बदमाशों पर फायरिंग शुरु की,तो लगा ये गोली सीधे अपनी छाती पर आ पड़ेगी। अपना रोना शुरु हो गया-चलो बाहर चलो। पिताजी ने,और बड़े भाई ने बहुत समझाया कि फिल्म में सब झूठ है,लेकिन जब जान पर बनी हो तो किसे समझ आता है?
दोस्ताना को लात मार दी गई......

इसके कुछ साल बाद,अपनी मां और बूआ के साथ राजबब्बर और स्मिता पाटील की फिल्म 'शपथ' देखने गया। इंटरवल तक मां और बूआ फिल्म को देखकर उखड़ चुके थे।
शपथ को लात मार दी गई....
इसके कई साल बाद 1991 में अमिताभ बच्चन की फिल्म "हम" आयी। औरेया में ये फिल्म रिलीज होते ही लगी। वरना,वहां फिल्म पांच-पांच महीने बाद लगती थी। हम का टिकट जुगाड़ना एक अलग किस्सा है,लेकिन पिताजी ने टिकट जुगाड़ी,और पूरा परिवार(कई रिश्तेदार घर आए थे) फिल्म देखने पहुंचा। लेकिन,औरेया के सूर्या टॉकीज का माहौल और घटिया प्रिंट देखकर सभी उखड़ गए।
हम को लात मार दी गई...

इसके बाद हाल के साल में हमारे बालक ने हम तुम,स्वदेश और ओमकारा नहीं देखने दी। सो इन्हें भी लात मार दी गई। पर सिंह इज किंग ने हमें ऐसी लात मारी है....कि दिमाग चकरघिन्नी बना हुआ है। दिन भर "सिंह इज किंग,सिंह इज किंग' गाने वाला बालक फिल्म देखे बिना मानेगा नहीं,सो इस बार पहले से टिकट लाकर फिल्म दिखानी होगी।

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

एक ‘महान’ क्रिकेटर का आकस्मिक निधन

सुबह के पांच-साढ़े पांच बजे, स्पोर्ट्स शू पहने आगरा के आरबीएस कॉलेज के मैदान के आठ दस चक्कर। फिर, जमकर एक्सरसाइज। और फिर, हाथ में बैट पकड़ने का मौका।

अब सिर्फ याद रह गई है उस क्रिकेट कैंप की। ज़िंदगी के कई क़िस्सों में ये क़िस्सा थोड़ा अलग है। वजह ये कि अगर वो कैंप पूरा हुआ होता,तो शायद ज़िंदगी का रुख कुछ और हुआ होता!

खैर,फिल्म पड़ोसन में बिन्दू के अब्बा ने जैसा कहा है-जब जब जो जो होना होना है,सो सो होगा, सो कुछ और हुआ।

हुआ यूं कि क्रिकेट कैंप में छठे सांतवे दिन ही औरेया के कुछ हमारे मित्र इस “ईर्ष्या में” आगरा के उस कैंप आ धमके कि कहीं पीयूष एक कैंप अटेंड कर ही सचिन तेंदुलकर न बन जाए!

सो जनाब, दो भाई लोग आ धमके। कैंप जारी था। फील्ड के आठ दस चक्कर कर हांफ ही रहा था कि दोनो दोस्त (कृपया दुश्मन पढ़ें) सामने खड़े थे। मुंबई से आया मेरा दोस्त,दोस्त को सलाम करो की तर्ज पर अपन भी दोस्तों के पास जा पहुंचे। बतियाने लगे। उनके कंधों पर हाथ धर खड़े हो गए इस्टाइल में.......

बस,जालिम कोच यह नज़ारा देख भड़क उठा। सीधे बुलाया,और गेट आउट का फ़रमान जारी कर डाला। हमने दो चार बार सॉरी,सॉरी बोला (वैसे,उस वक्त इससे ज्यादा अंग्रेजी आती भी नहीं थी। मेरा पूरा विश्वास है कि अगर चटरपटर अंग्रेजी में मैंने उससे कायदे से माफी मांग ली होती,तो वो बुला लेता) लेकिन उसने नहीं सुनी। अब,ज्यादा सुनने के अपन भी आदी नहीं,सो तीन सॉरी के बाद सीधे बोला....तेरी मां..........

तेल लेने गया कैंप....
(दुश्मन अपनी साज़िश में सफल हुआ। एक महान क्रिकेटर सिर्फ पत्रकार बन कर रह गया)

नोट-वैसे,इस किस्से की याद आज उस वक्त अचानक आ गई,जब क्रिकेट के मुद्दे पर अपने बॉस के साथ मीटिंग में बैठा। 1992 में इस कैंप को अटेंड करने तक मुझे भी हर मैच का लेखा जोखा जुबानी याद रहता था,लेकिन पता नहीं क्यों इसके बाद क्रिकेट में पूरा दिल नहीं रम पाया। हां,अब क्रिकगुरुऑनलाइनडॉटकॉम में रहते हुए फिर क्रिकेट की बारीकियों और उसकी नब्ज पकड़ने की कोशिश कर रहा हूं।

रविवार, 6 मई 2007

जब बाबा जी बजवा देते हिन्दी में घंटा !

तुम्हारी मौसी मुंबई में हैं।
तुम्हारे जन्म की तारीख फलां है।
तुम्हारे घर में ऐसा उपकरण आऩे वाला है,जो पूरे कस्बे में अभी नहीं है।
बेटी, तुम्हारे पति आज बैंक नहीं गए।

बाबा जी की हर बात सही निकली। चमत्कार को नमस्कार करना ही पड़ा।

ये बात सन् 1993 की है शायद। उन दिनों हमारी जान-पहचान एक बाबा जी से हुई। बाबा जी भले इंसान थे, कभी कुछ मांगा नहीं-लिया नहीं।

खास बात ये कि हमारे बारे में,हमारे पड़ोसियों के बारे में बतायी बातें सच निकलीं। हमने अपने रिश्तेदारों को भी दिल्ली-कानपुर-आगरा से आऩे का न्यौता दे डाला। भइए, बाबा जी चमत्कारी टाइप के हैं, पूछ सको तो पूछ।

वैसे, मैं ईमानदारी से कहता हूं कि उन्होंने कुछ बातें ऐसी बतायीं-जो शायद मेरे अलावा किसी और को नहीं मालूम होंगी।

ज़ाहिर है, बाबा जी ने अपने प्रभावित कर रखा था। औरेया के उन बाबा जी का नाम याद नहीं, क्योंकि हम उन्हें बाबा जी ही कहते थे, लेकिन लगातार उनसे संपर्क होने के कारण उनका हमारे मुहल्ले में आना-जाना सामान्य हो गया था। उनके मुरीदों की संख्या लगातार बढ़ रही थी-और कोई ऐसा शख्स नहीं मिला था-जो कहे कि बाबा फ्रॉड हैं।

इन्हीं दिनों, हमारे इंटर के पेपर नजदीक आ गए। पहला पेपर हिन्दी का था। लालच बुरी बला है-और हम लालची नहीं, ऐसा भी नहीं। मन मे खयाल आया कि अगर बाबा जी चमत्कार से सवाल बता दें तो मज़ा आ जाए। लफड़े खत्म।

हमनें ये दिली ख्वाहिश बाबा जी को बतायी तो उन्होंने भी कह डाला- पेपर से एक दिन पहले आना।

भइए, हम और हमारा दोस्त पेपर से ऐन पहले के दिन शाम को बाबा जी के पास पहुंच गए। बाबा जी ने किताब में 10-12 सवालों पर टिक मार्क लगा दिया। हमने सोचा कि वाह बेटा! हो गया खेल! अब तो झंडा गढ जाएगा। दरअसल, बाबा जी पर अविश्वास करने का कोई ठोस कारण नहीं था।

रात में इम्तिहान की आखिरी तैयारी में जुटे तो उन सवालों को ठोक-बजाकर समझ लिया-जिन्हें बाबा जी ने बताया था। लेकिन, पहला पेपर था और अपन अक्ल से बिलकुल चिरकुट नहीं थे ( थोड़े तो थे ही, तभी गए थे बाबा जी के पास)-लिहाजा बाकी तैयारी भी कर डाली।

इम्तिहान वाले दिन अपनी दोस्ती का हक अदा करने के लिए कुछ दोस्तों को बाबाजी मार्का सवाल आउट कर डाले। भाई, यारी का सवाल है।हम 100 नंबर लाएं, अपना दोस्त 60 भी नहीं- ये अच्छी बात नहीं है। सो, दोस्तों को कुछ सवाल ये कहकर बता डाले कि भइए,बहुत इंपोर्टेंट सवाल है-किसी हिन्दी के विद्वान अंकल ने बताए हैं।

लेकिन, पर्चा आया तो एक पल के लिए हवाइयां उड़ गईँ। बाबा जी पूरी तरह फेल। एक सवाल नहीं गिरा साला पर्चे में उऩका। वो तो अच्छा था कि तैयारी ठीक ठाक थी और हिन्दी में अपना हाथ तंग नहीं था-वरना बाबा जी ने तो बजवा ही दिया था हिन्दी में घंटा। पेपर अच्छा ही हुआ...।

इस वाक्ये के बाद बाबा जी के पास हमारा जाना धीरे धीरे छूट गया। कई वजहों से। लेकिन,यह मानने को अभी भी मन नहीं करता कि वो फ्रॉड थे।

हां, कुछ ज्ञानी टाइप के लोगों ने बाद में कहा-बाबा जी के पास एक जिन्न था, जो भूत की बातें तो खोज लाता था, पर कल क्या होगा-इसमें जिन्न की भी हवा निकल जाती।

अब कोई कुछ भी सोचे-लेकिन दो बातें साफ हैं। पहली बात ये कि बाबा जी ने कई बातें बिलकुल ठीक बताई थीं, इसलिए उऩ पर यकीं हो गया। दूसरी बात ये कि अगर धोखे में भी हम अगर बाबा जी पर ही पूरा यकीं कर लेते तो 12वीं में हमारा हिन्दी में ही घंटा बज जाता। जी हां-हिन्दी। जिसमें किसी का घंटा नहीं बजता। साइंस,मैथ्स में तो दुनिया का घंटा बजता है,हमारा पहली बार हिन्दी में बज गया होता।
-पीयूष