एक के हाथ में कट्टा था। नली दूसरे के माथे पर। बोल-चांदी सिंह...मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए।
मज़ाक मत कर रिंकू। चांदी थरथरा रहा था। माथे से पसीना का फुव्वारा फूट रहा था,और शब्द जुबां का साथ छोड़ चुके थे।
हम जैसे चिरकुट दोस्त इस तमाशे का मज़ा ले रहे थे....।
दरअसल, मुहल्ले का हमारा दोस्त चांदी कथित तौर पर बेहद डरपोक था।(शब्दावली बिगाड़ू तो हग्गू था)। वो घर में चूहे,कॉकरोच,बिल्ली से लेकर बाहर सड़क पर घूमने वाली गाय-भैंसों तक सबसे डरता था।अब,दुनिया का दस्तूर है कि जो डरता है,वो मरता है। सो,दोस्त लोग चांदी को डराने का ही एक खेल अक्सर खेला करते थे।
उस दिन ये खेल वीभत्स हो गया। हमारे एक दोस्त,जिनके भाई साहब इलाके के दबंगों में से एक थे, ने हमारे दूसरे दोस्त मिंटू की दुकान पर अपने कट्टे का प्रदर्शन किया। देसी कट्टे के सार्वजनिक प्रदर्शन के बाद कुछ दोस्त मिंटू की दुकान के बाहर गपशप करने लगे। लेकिन, इस दौरान कट्टा दुकान के भीतर रखा गया। और पता नहीं,मिंटू के बड़े भाई रिंकू को क्या सूझी कि उसने कट्टा लेकर चांदी के माथे पर टिका दिया।
रिंकू के एक हाथ में कट्टा था। नली दूसरे के माथे पर। बोल-चांदी सिंह...मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए। डायलॉग बाजी हो रही थी।
कंपकंपाया चांदी को कुछ दोस्त देख भी रहे थे,लेकिन शायद किसी को अंदाज नहीं था कि अब क्या होगा।
अचानक...रिंकू ने ट्रिगर दबा दिया......और यकीं जानिए ट्रिगर दबते ही चांदी गिर पड़ा। सब हंस पड़े। खिलखिलाकर। गोली चली नहीं,चांदी डर के मारे गिर पड़ा था।
लेकिन ये क्या...??? इस तमाशे की भनक कट्टे के मालिक यानी हमारे दोस्त को लगी,तो वो दौड़कर घटनास्थल पर पहुंचा। उसने सीधे रिंकू को मां-बहन की गालियां दी और कट्टा खोल कर दिखाया। कट्टा लोड़ था.....बस मिस हो गया।
देसी तमंचे की ये कमी(खूबी) पहली बार हमारे लिए वरदान साबित हुई।
अब,बारी चांदी की थी। चांदी उठा,और रिंकू की ऐसी-तैसी करते हुए दौड़ पड़ा। और हम सब चुपचाप वहां से खिसक लिए....।
दरअसल,औरेया में कट्टे,रिवॉल्वर छात्रों के हाथ में होना बड़ी बात नहीं थी। लेकिन,इस घटना ने कहीं न कहीं हमें सिखा दिया कि रंगबाजी के चक्कर में ऐसे खेल-मौत के खेल-भी हो सकते हैं।
शनिवार, 30 अगस्त 2008
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें